‘ॐ’ क्या है? इस सम्बन्ध में यह छोटी-सी पुस्तिका अत्यन्त सरलता से बोध दिलाती है। इसमें सन्देह नहीं कि ‘ॐ’ का विवेचन गम्भीर है। फिर भी, मेरे प्रिय उत्साही लेखक शिष्य ने जो लिखा है, सो प्रशंसनीय है।
वस्तुतः ‘ॐ’ का स्वरूप गहरे ध्यान में ही विदित होने योग्य है। यद्यपि इसका जप भी होता है; परन्तु इसका यथार्थ स्वरूप ध्यान में ही प्राप्त हो सकता है।
इन बातों की जानकारी पुस्तक के पाठ करने पर होगी। यह सत्संग में पाठ करने के योग्य है। साथ ही, पाठकगण पुस्तिका को कई बार पढ़ेंगे, तो ठीक-ठीक ‘ॐ’ के विषय में कुछ अधिक जानकार हो सकेंगे।
शुभाकांक्षी
मेँहीँ
मकर-पूर्णिमा
2026 वि0सं0
परम पुरातन, परम सनातन परम प्रभु परमात्मा का परम प्राचीन एवं परम पावन नाम ‘ओ3म्’ है। इस पवित्रतम ‘ॐ’ की महत्तर महत्ता, उसका उद्गम, प्राकट्य, उसके स्वरूप की प्राप्ति के साधन तथा उसकी उपलब्धि के लाभ प्रभृति विभिन्न विषयों की विविध भाँति से अभिव्यंजना प्रस्तुत पुस्तक में की गयी है।
कुछ वर्ष पूर्व मेरे द्वारा निबंधित ‘ओ3म्-विवेचन’ शीर्षक निबन्ध ‘शान्ति-सन्देश’ (मासिक पत्र ) के चार वा पाँच अंकों में प्रकाशित हुआ था। वर्षों से भगवद्-अनुरागियों का अनुरोध था कि इस बिखरे सुमन का संचयन किया जाय; किन्तु समयाभाव के साथ ही जब मैं अपने अल्पतम ज्ञान और ओ3म् के महत्तम ज्ञान की ओर दृष्टिपात करता, तो पोच बुद्धि में कुछ सोच संकोचवश रह जाता, उस ओर ध्यान नहीं देकर, टाल-मटोल करता रहता। ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता गया, त्यों-त्यों उनका अधिकाधिक आग्रह बढ़ता गया। इस वर्ष उन प्रेमी सज्जनों का प्रेमाग्रह इतना बढ़ा, जिसकी अवहेलना मेरे लिये अशक्य हो गयी। परिणामस्वरूप जिस निबन्ध से मेरा सम्बन्ध वर्षों से छूट गया था, उससे जुट गया और पुनः उसके एक बार अवलोकन की इच्छा जागृत हुई। देखने पर उसमें यत्र-यत्र संशोधन एवं परिवर्द्धन की आवश्यकता जान पड़ी, जो मुझे करना पड़ा।
अब जो कुछ है, आपके कर-कमलों में है। इसमें जो अच्छाइयाँ आपको दीख पड़ें, उन्हें गुरु-प्रसाद जानकर अंगीकार करें और जो त्रुटियाँ हों, उन्हें मेरी अयोग्यता जान, मुझे क्षमा करें।
प्रस्तुत पुस्तक के प्रणयनार्थ सहायक ग्रन्थ-प्रणेता का मैं आभारी हूँ, साथ ही उन सज्जनों का भी, जिनकी सहायता से पुस्तक का प्रकाशन-कार्य सम्पन्न हो सका। अन्त में, परोक्ष वा प्रत्यक्ष जिस किसी भी रूप में, जिन सज्जनों से मुझे सहायता मिली है, उन सबको मेरा हार्दिक धन्यवाद!
गुरु-चरणाश्रित
गणतंत्र दिवस, 1970 ई0
‘सन्तसेवी’
ओ3म् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्।
भारतीय संस्कृत्यनुकूल प्रायः प्रत्येक भारतीय परिवार अपने प्राचीन प्रचलन के अनुरूप स्वबाल-बच्चों को बाल्यकाल से ही राम, कृष्ण, शिव, हरि, शक्ति, माँ, वाहगुरु, ओ3म्, सतनाम प्रभृति शब्द बोलने की सीख देते हैं। इन ईश्वरवाचक शब्दों में किसी को बड़ा और किसी को छोटा कहना सर्वथा अनुचित, अयोग्य और अशोभनीय है। गो0 तुलसीदासजी के शब्दों में हम कह सकेंगे-‘को बड़ छोट कहत अपराधू।’ अतएव ये ईश्वरवाची सभी शब्द अच्छे हैं।
गोस्वामी तुलसीदासजी को सब नामों में ‘रामनाम’ विशेष रुचिकर होने के कारण उन्होंने नारदजी द्वारा भगवान श्रीराम से पाणिबद्ध प्रार्थना करके वर प्राप्त किया कि-
‘यद्यपि प्रभु कर नाम अनेका ।
श्रुति कह सकल एक तें एका ।।
राम नाम सबहिन तें अधिक ।
होउ नाथ अघ खग गन बधिक।।’
सन्त दादू दयालजी ने साम्प्रदायिक संकीर्णता की शृंखला तोड़ अपने उदार एवं विशाल हृदय का परिचय देते हुए बड़े ही सुन्दर शब्दों में कहा-
‘दादू सिरजनहार के, केते नाम अनन्त ।
चित भावै सो लीजिये, यों सुमिरैं साधू सन्त ।।’
फिर भी, श्रुति-उपनिषदादि आर्ष ग्रन्थों के अवलोकन एवं अनुशीलन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्राचीन ऋषि-महर्षियों ने उन ग्रन्थों में विशेषतः ‘ॐ’ का प्रतिपादन किया है। इतना ही नहीं, ‘ॐ’ को ऐसा विशिष्ट स्थान प्राप्त है, जैसे उसके अभाव में वेद एवं उपनिषद-मन्त्र अपूर्ण ही रह जाते हैं। इसलिये प्रत्येक मन्त्रारम्भ में ‘ॐ’ शब्द सन्निविष्ट करना अनिवार्य हो गया। वैदिक सभी शुभ कार्यों के आरम्भ में हम ‘ॐ’ का विधान पाते हैं। इसके लिए आर्ष वाक्य भी है-
‘ओंकारस्य ब्रह्माऋषि गायत्री छन्दो शुक्लवर्णः सर्वकर्मारम्भे विनियोगः।’
-यजुर्वेदीय संध्या।
अर्थात ओंकार के ऋषि ब्रह्मा हैं, यह गायित्री छन्द है, शुक्लवर्ण है, सब कामों के आरम्भ में इसका विनियोग (प्रयोग) होता है; यथा-
ओमिति ब्रह्म। ओमितीद्ँ सर्वम्। ओमित्येतद्नुकृतिर्ह स्म वा अप्यो श्रावयेत्याश्रावयन्ति। ओमिति सामानि गायन्ति। ओ्ँ शोमेति। शस्त्राणिश्ँ सन्ति। भोमित्यध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगृणाति। ओमिति ब्रह्मा प्रसौति। ओमित्यग्नि- होत्रमनुजानाति। ओमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मो- पाप्नवानति। ब्रह्मैवोपाप्नोति।
(तैत्तिरीयोपनिषद, वल्ली-1, अनु0 8)
‘ॐ’ यह ब्रह्म है। ‘ॐ’ ही यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला समस्त जगत है। ‘ॐ’ इस प्रकार का यह अक्षर ही निस्संदेह अनुकृति (अनुमोदन) है, यह बात प्रसिद्ध है। इसके सिवा हे आचार्य! मुझे सुनाइये, यों कहने पर (’ॐ’ यों कहकर शिष्य को) उपदेश सुनाते हैं। ‘ॐ’ (बहुत अच्छा) इस प्रकार स्वीकृति देकर सामगायक विद्वान सामवेद गाते हैं। ‘ओम् शोम’ यों कहकर ही शास्त्रों को अर्थात मंत्रों को पढ़ते हैं। ‘ॐ’ यों कहकर अध्वर्यु नामक ऋत्विक प्रतिगर-मंत्र का उच्चारण करता है। ‘ॐ’ यों कहकर ब्रह्मा (चौथा ऋत्विक) अनुमति देता है। ‘ॐ’ यह कहकर अग्निहोत्र करने की आज्ञा देता है। अध्ययन करने के लिए उद्यत ब्राह्मण पहले ‘ॐ’ का उच्चारण करके कहता है- मैं वेद को प्राप्त करूँ। (फिर वह) वेद को निश्चय ही प्राप्त करता है।
‘ॐकार विन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ।
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ।।’
-श्रीरामरक्षा स्तोत्र
योगिजन अनुस्वार से युक्त ओंकार का सदा ध्यान करते हैं। यह ओंकार सब इच्छाओं की पूर्ति करनेवाला और मोक्ष का दाता है। हम सब इस ओंकार के प्रति नमस्कार करते हैं।
स्मार्त मंत्रों के आदि में बीज रूप से ओंकार होता ही है और बौद्ध धर्म के जितने पूजन-पाठ के मंत्र हैं, सबमें ‘ॐ’ लगा हुआ है।
सिक्ख धर्म में भी उसके प्रवर्त्तक गुरु नानक देवजी ने ओंकार को अपना मूलमंत्र बनाकर सबको इसकी शिक्षा-दीक्षा दी। उनका मंत्र था-‘एक ओं सतिनाम करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि जपु। आदि सचु जुगादि सचु है भी नानक होसी भी सचु।।’ जाति-पाँति, ऊँच-नीच आदि के भेद-भाव का सर्वथा परित्याग कर सबको समान अधिकारी जान उन्होंने चातुर्वर्ण्य को उपदेश देने का आदेश दिया।
‘चहु वरना को दे उपदेश।
तिसु पंडित को सदा अदेस।।’
मात्र भारतीय विभिन्न धर्मावलम्बी ही नहीं, ईसाई और मुसाई भी इस (ॐ) के कायल हैं।
अपनी प्रार्थना (Prayer) के अंत में ईसाई ‘अमेन’ (Amen) शब्द का प्रयोग करते हैं और मुसलमान अपनी प्रार्थना वा नमाज में ‘आमीन’ कहा करते हैं। यह ‘अमेन’, ‘आमीन’ भी ‘ॐ’ के ही रूपांतर हैं।’
‘ओ3म् को उद्गीथ, प्रणव, स्फोट, शब्दब्रह्म प्रभृति नामों से भी अभिहित करते हैं; यथा-श्वेताश्वतर उपनिषद में लिखा है-
‘उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म
तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाक्षरं च ।
अत्रान्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा
लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः।।9।।’
अर्थात (उद्गीथ) उद्गीत (ॐ) परम ब्रह्म है। उसमें तीन सुप्रतिष्ठित अक्षर (अ, उ, म्) हैं। ब्रह्मज्ञानी लोग भीतरी हालत (रहस्य-गुप्तभेद) जानकर ब्रह्म में लीन हो जाते हैं (अर्थात ॐ-उद्गीत में लीन हो जाते हैं)।
मुण्डकोपनिषद, खण्ड 2 में है-
‘प्रणवो धनु: शरोह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ।।4।।’
प्रणव अर्थात ओंकार ही धनुष है, आत्मा ही वाण है और परब्रह्म परमेश्वर ही उसका लक्ष्य कहा जाता है। (वह) प्रमाद-रहित मनुष्य द्वारा ही बींधे जाने योग्य है। अतः उसे बेधकर वाण की तरह (उस लक्ष्य में) तन्मय हो जाना चाहिए।
‘स्फोटमात्रमादेः श्रुतेर्लश्रुतिर्भवतीति।’ एवं ‘ध्वनि स्फोटस्य शब्दानां ध्वनिस्तु खलु लक्ष्यते’-(महाभाष्य)
यदि परम पूज्य सद्गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) के शब्दों में हम कहना चाहेंगे, तो इस भाँति कहेंगे-
‘अव्यक्त अनादि अनन्त अजय, अज आदि मूल परमातम जो।
ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा, जिनसे कहिये स्फोट है सो।।
है स्फोट वही उद्गीथ वही, ब्रह्मनाद शब्दब्रह्म ॐ वही।
अति मधुर प्रणव ध्वनिधार वही, है परमातम प्रतीक वही।।
प्रभु का ध्वन्यात्मक नाम वही, है सार शब्द सत् शब्द वही।
है सत् चेतन अव्यक्त वही, व्यक्तों में व्यापक नाम वही।।
है सर्वव्यापिनि ध्वनि राम वही, सर्व-कर्षक हरि कृष्ण नाम वही।
है परम प्रचण्डिनि शक्ति वही, है शिव शंकर हर नाम वही।।
पुनि राम नाम है अगुण वही, है अकथ अगम पूर्ण काम वही।
स्वर-व्यञ्जन-रहित अघोष वही, चेतन ध्वनि-सिन्धु अदोष वही।।
है एक ओ3म् सतनाम वही, ऋषि-सेवित प्रभु का नाम वही।
* * * मुनि-सेवित गुरु का नाम वही।।
भजो ॐ ॐ प्रभु नाम यही, भजो ॐ ॐ ‘मेँहीँ’ नाम यही।।’
‘ॐ’ में तीन अक्षर (अ, उ, म्)हैं और इन्हीं तीनों से क्रमशः (रज, सत्, तम) तीनों गुणों की उत्पत्ति हुई है। ध्यान विन्दूपनिषद में इसकी व्याख्या है-
‘अकारः पीतवर्णः स्याद्रजोगुण उदीरितः।
उकारः सात्त्विकः शुक्लो मकारः कृष्ण तामसः।।’
अर्थात अ = रजोगुण = पीतवर्ण; उ = सतोगुण = शुक्लवर्ण; म् = तमोगुण = कृष्णवर्ण।
ज्ञानसंकलिनी तंत्र में इससे कुछ भिन्न ही लिखा है-
‘अकारः सात्त्विको ज्ञेय उकारो राजसः स्मृतः।
मकारस्तामसः प्रोक्तस्त्रिभिः प्रकृतिरुच्यते।।98।।’
अर्थात अकार सतोगुणमय, उकार रजोगुणमय और मकार तमोगुणात्मक हैं। इन्हीं तीनों के द्वारा प्रकृति वर्णित हुई।
कतिपय सज्जन इस प्रकार भी कहते हैं कि ‘ब्रह्मा, विष्णु और शिव की त्रिमूर्ति का द्योतक शब्द, जिसमें अ=विष्णु, उ=शिव और म्=ब्रह्मा का संकेतक माना जाता है।’ (संक्षिप्त हिन्दी शब्द-सागर, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी।)
कठोपनिषद अ0 1, वल्ली 2 में ‘ॐ’ की विवेचना करते हुए यमराज ने नचिकेता से इस भाँति कहा-
‘सर्वेवेदा यत् पदमामनन्ति तपाँ्सि सर्वाणि च यद् वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्तै पदँ् संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्।।15।।’
अर्थात सम्पूर्ण वेद जिस परम पद का बारम्बार प्रतिपादन करते हैं और सम्पूर्ण तप जिस पद का लक्ष्य कराते हैं अर्थात वे जिसके साधन हैं, जिसको चाहनेवाले साधकगण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वह पद तुम्हें मैं संक्षेप से बतलाता हूँ, (वह है) -ओ3म् ऐसा (एक अक्षर) ।।15।।
‘एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम्।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्।। 16।।’
अर्थात यह अक्षर ही तो ब्रह्म है और यह अक्षर ही परब्रह्म है। इसलिए इसी अक्षर को जानकर, जो जिसको चाहता है, उसको वही मिल जाता है।।16।।
‘एतदालम्बनँ् श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।।17।।’
अर्थात यही अत्युत्तम आलम्बन है, यही सबका अंतिम आश्रय है। इस आलम्बन को भली भाँति जानकर (साधक) ब्रह्मलोक में महिमान्वित होता है।।17।।
प्रश्नोपनिषद के पंचम प्रश्न में महर्षि पिप्पलाद ने सत्यकाम से ओंकार को पर और अपर ब्रह्म का स्वरूप बताया है। साथ ही, ओ3म् की तीनों मात्राओं के पृथक्-पृथक् फल भी बताये हैं कि किस मात्रा के उपासक की क्या गति होती है।
‘तस्मै स होवाच एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोङ्कार:।
तस्माद्विद्वानेतेनैवाय तनेनैकतरमन्वेति।।2।।
अर्थात हे सत्यकाम! यह जो ओंकार है, वही निश्चय पर और अपर ब्रह्म है। अतः विद्वान इसी के आश्रय से उनमें से किसी एक (ब्रह्म) को प्राप्त हो जाता है।।2।।
स यद्येकमात्रमभिध्यातीत स तेनैव
संवेदितस्तूर्णमेव जगत्यामभिसम्पद्यते।
तमृचो मनुष्यलोकमुपनयन्ते स तत्र तपसा
ब्रह्मचर्येण श्रद्धया सम्पन्नो महिमानमनुभवति।।3।।
अर्थात वह उपासक यदि एक मात्रा से युक्त ओंकार का भली भाँति ध्यान करे, तो वह उस उपासना से ही अपने ध्येय की ओर प्रेरित किया हुआ शीघ्र ही पृथ्वी में उत्पन्न हो जाता है। उसको ऋग्वेद की ऋचाएँ मनुष्य-शरीर प्राप्त करा देती हैं। वहाँ वह उपासक तप, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा से सम्पन्न होकर महिमा का अनुभव करता है।।3।।
‘अथ यदि द्विमात्रोण मनसि सम्पद्यते
सोऽन्तरिक्षं यजुर्भिरुन्नीयते सोमलोकम्।
स सोमलोके विभूतिमनुभूय पुनरावर्तते।।4।।’
अर्थात परन्तु यदि दो मात्राओं से युक्त (ओंकार का) अच्छी प्रकार ध्यान करता है, तो (उससे) मनोमय चन्द्रलोक को प्राप्त होता है। वह यजुर्वेद के मंत्रों द्वारा अंतरिक्ष में स्थित चन्द्रलोक की ओर को ऊपर ले जाया जाता है। वह चन्द्रलोक में वहाँ के ऐश्वर्य का अनुभव करके पुनः इस लोक में लौट आता है।।4।।
‘यः पुनरेत त्रिमात्रोणोमित्येते नैवाक्षरेण परं
पुरुषमभिध्यायीत स तेजसि सूर्ये सम्पन्नः.............।।5।।
अर्थात परन्तु जो तीन मात्राओं वाले ओ3म् रूप, इस अक्षर पुरुष के द्वारा ही इस परम पुरुष का निरन्तर ध्यान करता है, वह तेजोमय सूर्यलोक में जाता है।।5।।
‘दैवी नियम है कि यदि तू ब्रह्मज्ञान चाहता है, तो पहले तत्त्व और आत्मज्ञान प्राप्त कर अर्थात अपने को पहचान। आत्मज्ञान तब प्राप्त होगा, जब देहाभिमान त्याग कर निरभिमान होगा। तब ही महाकाल रूपी ॐ*(1 ऋग्वेद के नादविन्दु उपनिषद में ‘अ’ उस हंस का दाहिना पर, ‘उ’ बायाँ पर, ‘म्’ पूँछ और अर्द्धमात्रा सिर कहा है। ‘ॐ’ के ध्यान से कर्म और पाप से छूट जाता है, जिस हंस में सप्त लोक की कल्पना की है।) हंस के परों में शांति से महाकल्प तक स्थित हो सकेगा। हे शिष्य! विचारकर देख यह स्थिति कैसी आनंदमयी है। हंस अजन्मा, अमर, अनादि, अनंत रूपी ओंकार है।।19।। यदि तू ज्ञान की इच्छा रखता है, तो ॐरूपी हंस पर आरूढ़ हो।।20।।’
(प्रथम खण्ड)
हे (मार) काम-विजयी! जाग्रत , स्वप्न, सुषुप्ति को छोड़कर चौथी तुर्या को प्राप्त होगा और तब सात अंतर देवलोकों को। ब्रह्म ॐ हंस जो देश-काल से परे है, उसमें यह सात लोक कल्पित हैं .........।।22।। अ उ म् से ऊपर अर्द्धर्मात्रा रूप तारा है।।88।।’ (परिशिष्ट खण्ड-1) *(1 ऋग्वेद के नादविन्दु उपनिषद में ‘अ’ उस हंस का दाहिना पर, ‘उ’ बायाँ पर, ‘म्’ पूँछ और अर्द्धमात्रा सिर कहा है। ‘ॐ’ के ध्यान से कर्म और पाप से छूट जाता है, जिस हंस में सप्त लोक की कल्पना की है।)
(The Voice of the Silence का हिन्दी अनुवाद-नीरव नाद)
‘तिस्रो मात्रा मृत्युमत्यः प्रयुक्ता
अन्योन्यसक्ता अनविप्रयुक्ताः ........।।6।।
अर्थात ओंकार की तीनों मात्राएँ (‘अ’, ‘उ’ तथा ‘म्’) एक दूसरी से संयुक्त रहकर प्रयुक्त की गयी हों या पृथक्-पृथक् एक-एक ध्येय के चिन्तन में इनका प्रयोग किया गया हो (दोनों प्रकार से ही वे) मृत्यु-युक्त हैं।
तात्पर्य यह कि ‘इसके एक अंग पृथ्वी लोक की या पृथ्वी और अंतरिक्ष-इन दोनों लोकों की अथवा तीनों लोकों को मिलाकर सम्पूर्ण जगत की अभिलाषा रखते हुए जो उपासना करता है, जिसका इस जगत के आत्मरूप परब्रह्म पुरुषोत्तम की ओर लक्ष्य नहीं है, वरन जो जगत के बाह्य स्वरूप में ही आसक्त हो रहा है, वह उन्हें नहीं पाता, अतः बार-बार जन्मता-मरता रहता है।’
किन्तु, गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में जो ‘विरति विरंचि प्रपंच वियोगी’ होकर ब्रह्म-सुखानुभव की आकांक्षा रखकर ओंकार की उपासना करते हैं, उनके लिए उसी उपनिषद के पंचम प्रश्नान्तर्गत सप्तम श्लोक में कहा है-
‘तमोङ्कारेणैवायतेनेनान्वेति विद्वान
यत्तच्छान्तमजरममृतमभयंपरंचेति।।7।।’
अर्थात विवेकशील साधक केवल ओंकार रूप आलम्बन के द्वारा ही उस परब्रह्म पुरुषोत्तम को पा लेता है, जो वह परम शांत जरा-रहित, मृत्यु-रहित, भय-रहित और सर्वश्रेष्ठ है।
माण्डूक्योपनिषद के निम्नलिखित श्लोक में त्रय मात्रिक ओंकार (अ, उ, म्)की परब्रह्म परमात्मा से एकता दिखलायी गयी है-
‘सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा
मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति।।8।।’
ब्रह्म के किस पाद से ओंकार की किस मात्रा की समता है तथा उससे मानव के किस शरीर और किस अवस्था से संबंध है, नीचे के श्लोकों में उपमान-प्रमाण द्वारा बताया गया है।
‘जागरित स्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा मात्राऽप्ते
‘रादिमत्त्वाद्वाऽऽप्नोति हवै
सर्वान्कामानादिश्च भवति य एवं वेद।।9।।’
अर्थात ओंकार की पहली मात्रा ‘अकार’ ही समस्त जगत के नामों में (अर्थात शब्द मात्रा में) व्याप्त होने के कारण और आदि वाला होने के कारण जाग्रत की भाँति स्थूल जगत-रूप शरीरवाला ‘वैश्वानर’ नामक पहला पाद है। जो इस प्रकार जानता है, वह अवश्य ही सम्पूर्ण भोगों को प्राप्त कर लेता है और सबका आदि (प्रधान) बन जाता है।।9।।
‘स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षादुभयत्वाद्वोत्कर्षति
हवैज्ञानसंततिं समानश्च भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति च एवं वेद।।10।।’
अर्थात ओंकार की दूसरी मात्रा ‘उ’ (‘अ’ से) उत्कृष्ट होने के कारण और दोनों भाववाला होने के कारण स्वप्न की भाँति सूक्ष्म जगत-रूप शरीरवाला ‘तैजस’ नामक दूसरा पाद है। जो इस प्रकार जानता है, वह अवश्य ही ज्ञान की परम्परा को उन्नत करता है और समान भाववाला हो जाता है। इसके कुल में परमात्मा को नहीं जाननेवाला नहीं होता।।10।।
‘सुषुप्त स्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वा
मिनोति हवा इदं सर्वमयीतिश्च भवति च एवं वेद।।11।।’
अर्थात ओंकार की तीसरी मात्रा ‘म्’ ही माप करनेवाला (जाननेवाला) होने के कारण और विलीन करनेवाला होने से सुषुप्ति की भाँति जगत-रूप शरीरवाला ‘प्राज्ञ’ नामक तीसरा पाद है। जो इस प्रकार जानता है, वह अवश्य ही इस सम्पूर्ण कारण जगत को माप लेता है अर्थात भली भाँति जान लेता है और सबको अपने में विलीन करनेवाला हो जाता है।।11।।
‘ॐ’ के अ, उ, म् और अर्धमात्रा; ये चार पाद हैं। अर्धमात्रा ध्वनि वा स्पन्दन-रूप होने के कारण अनिर्वचनीय है।।’
-(प्रणव-रहस्य)
अधेलिखित श्लोक में, मात्रा-रहित ओंकार ब्रह्म के चौथे पाद के साथ एकता की गयी है।
‘अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत एवमोङ्कार
आत्मैव संविशत्यात्मनाऽऽत्मान य एवं वेद य एवं वेद।।12।।’
अर्थात इसी प्रकार मात्रा-रहित ओंकार (प्रणव) ही व्यवहार में न आनेवाला, प्रपञ्च से अतीत, कल्याणमय और अद्वितीय, ब्रह्म का चौथा पाद है। वह आत्मा अवश्य ही आत्मा के द्वारा परात्पर ब्रह्म-परमात्मा में पूर्णतया प्रविष्ट हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है, जो इस प्रकार जानता है।।12।।
‘ओ3म् की पहली मात्रा ‘अकार’ परमात्मा के विराट रूप का बोधक है, जो विश्व का उपास्य है। दूसरी मात्रा ‘उकार’ हिरण्यगर्भ का बोधक है, जो तेजस् का उपास्य है। तीसरी मात्रा ‘मकार’ ईश्वर बोधक है, जो प्राज्ञ का उपास्य है। ......... चौथे ‘इतिविराम’ में सब मात्राएँ समाप्त हो जाती हैं। वह गुणों की सर्व उपाधियों से रहित केवल शुद्ध निर्गुण परमात्म-स्वरूप है, जहाँ उपास्य-उपासक भेद-भाव समाप्त हो जाते हैं।’’ (पातंजल योग प्रदीप, समाधिपाद) ।
‘ओ3म् परमात्मा का सर्वोत्तम नाम इसलिये माना जाता है कि इसमें शुद्ध स्वर हैं और व्यंजन कोई भी नहीं है। अन्त में ‘म्’ जो हमें दिखाई देता है, यह व्यंजन का ‘म्’ नहीं है, बल्कि मूर्धन्य अनुनासिक स्वर का प्रतीक है। इस रूप में ‘अ’ और ‘उ’ दोनों स्वर हैं और इनके साथ अनुनासिक स्वर का योग है। इसलिये पूरा ही शुद्ध स्वर रूप है। स्वर का अर्थ है- वह ध्वनि जिसको किसी दूसरे का सहारा नहीं लेना पड़े, जो स्वयंभू है। जिस प्रकार यह ‘अ’ और ‘उ’ ध्वनियाँ स्वयंभू हैं, स्वाश्रयी हैं, उसी प्रकार परमात्मा भी स्वयंभू है, स्वाश्रयी है, उसे किसी दूसरे का सहारा नहीं लेना पड़ता।.... इसमें ‘अ’ स्वरों का आदि अक्षर है और यह सारे स्वरों का अग्रणी है। ....‘उ’ अन्तिम स्वर है। इसके बाद आनेवाले स्वर नहीं हैं। ....इसीलिए महामुनि पाणिनि ने केवल तीन शुद्ध स्वरों को लेकर पहला सूत्र बनाया ‘अ इ उ ण्।’ इस सूत्र के अनुसार हम देख सकते हैं कि ‘अ’ सबका आदि है और ‘उ’ सबका अन्तिम है, परमात्मा सृष्टि का आदि भी है और सृष्टि के अन्त में भी शेष वही है। और चूँकि यही सबको रूप देनेवाला, शक्ति देनेवाला तजोरूप है, इसलिए ‘उ’ से परमात्मा का अर्थ लिया करते हैं।.... सृष्टि के प्रारम्भ होने के बाद; क्योंकि समस्त सृष्टि प्रकृति रूप में परमात्मा के ही गर्भ में रह जाती है, इसलिए उस परमात्मा को हिरण्यगर्भ के रूप से जाना जाता है और उस हिरण्यगर्भ का सम्बन्ध इस ‘उ’ से इसलिए है; क्योंकि वह शेष अर्थात अन्तिम है। तीसरा मूर्धन्य अनुनासिक स्वर जो पहले कहा जा चुका है, शुद्ध अनुनासिक है। यह स्वयं मूर्धन्य है और परमात्मा की मूर्धन्यता का प्रतिपादन करता है। जैसे परमात्मा सबका अग्रणी और सबके अन्त में शेष रह जानेवाला एकमात्र तत्त्व है, इसी प्रकार वह एक सर्वोच्च शक्ति भी है। इसी सर्वोच्च शक्ति का प्रतिपादन करनेवाले तीन अर्थ- ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञ, इस ‘म’ के अर्थ के रूप में दिये गये हैं। ईश्वर सबका शासनकर्त्ता, सबका मूर्धन्य है। इसी प्रकार आदित्य समस्त ज्योतियों का मूर्धा है और प्राज्ञ समस्त शरीर में समस्त इन्सानों का मूर्धा होता है। इसीलिए ‘म’ से इन तीनों का प्रतिपादन किया।’
(जन-ज्ञान मासिक ‘माँ! गायत्री’ विशेषांक से)
‘मंत्रणां प्रणवः सेतुः’। प्रणव-ओ3म् मन्त्रों का सेतु है। पंचाक्षर, अष्टाक्षर, द्वादशाक्षर आदि सभी मन्त्र बीज रूप से ‘ॐ’ में ही सन्निहित हैं। वैदिक धर्मावलम्बी वा आर्यों के वेद-वेदान्त आदि सभी धर्मग्रन्थ सूत्र-रूप से ‘ओ3म्’ में ही ग्रथित हैं। ‘ओ3म्’ सभी ध्वनियों की जननी और जीवनाधार है। किसी भी रोग की असहाय वा भयंकर पीड़ा के समय हम रह-रहकर वा लगातार ‘ओह, ऊँह, हुँ-हूँ’ आदि की रट लगाकर क्षणिक शांति-सुख का अनुभव करते हैं। ओह, ऊँह, हुँ-हूँ आदि ध्वनि-रूप से ओंकार के रूपान्तर ही हैं। जब बच्चा रोने लगता है, तब वह भी ‘ऊँ-ऊँ’ की ही ध्वनि करता है। उसकी यह ध्वनि भी ‘ॐ’ का ही रूपान्तर है।
‘ओ3म्’ समस्त सृष्टि का सामूहिक रूप है। ‘ओ3म्’ गुरु शब्द है। ‘ओ3म्’ हिरण्यगर्भ की वाणी है। ‘ओ3म्’ वेदों की माता है। ‘ओ3म्’ सभी ध्वनियों की जीवनमूरि है। ‘ओ3म्’ विश्व की महाध्वनि है। ‘ओ3म्’ सृष्टि की आदिध्वनि है। ‘ओ3म्’ ज्ञानयोग के जिज्ञासु-विद्यार्थी का अमूल्य शब्द है। ‘ओ3म्’ वेदान्तियों का (वेदान्तवेद्य) ‘वेदान्त-प्रमाण’ है। ‘ओ3म्’ अभय और अमृतत्व रूप आत्मा वा ‘ब्रह्म’ प्राप्ति के लिए आत्मज्ञान की नौका-उस पार जाने का ‘प्रमाणपत्र ’ है। (प्रणव-रहस्य)
जिन्होंने साधना के द्वारा ‘ॐ’ प्रणवब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिए तो कहना ही क्या, सम्प्रति वैज्ञानिक युग के वैज्ञानिकों से भी यह बात छिपी नहीं है कि किसी भी निर्माण वा विनाश में कम्प का होना अनिवार्य है। कम्प वा गति के बिना जागतिक किसी तत्त्व का जीवन अर्थात उसकी स्थिति भी असम्भव ही है। कम्प का शब्दमय और शब्द का कम्पमय होना ध्रुव-निश्चित है। इन उभय की अभिन्नता में भिन्नता का भाव उसी भाँति असम्भव है, जैसे शब्द और उसके अर्थ में। ‘गिरा अरथ जलवीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न।’ (गो0तुलसीदास)
सृष्टि-निर्माण-निमित्त, ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ की जब ईश ने ईषणा की, तब एक घोर-शोर ध्वन्यात्मक ध्वनि का आविर्भाव हुआ। जिसे ऋषि-महर्षियों ने ‘ओ3म्’, उद्गीथ, स्फोट, प्रणव आदि शब्दों से अभिहित किया। सृष्टि के आदि में परमात्मा से सर्वप्रथम इसी की अभिव्यंजना (प्राकट्य) होने के कारण इसको आदिनाद, आदिनाम और आदिशब्द भी कहते हैं। इस आदिशब्द की चर्चा हम ईसाइयों के पवित्र धर्म ग्रन्थ बाइबिल में भी पाते हैं। यथा-‘In the beginning was the Word and the Word was with God and the Word was God.¸ Holy Bible, Chapter 1 (Saint John) अर्थात सृष्टि के आदि में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था, और यह शब्द ही ईश्वर था।
जिन संज्ञाओं से उक्त ध्वन्यात्मक ध्वनि को संबोधित किया गया, वे सभी नाम रहस्यात्मक हैं और उनका रहस्योद्घाटन करना भी आसान काम नहीं। वह तो सन्त कबीर साहब के शब्दों में ‘सैना बैना कहि समझावौं, गूँगे का गुर भाई’ है। फिर भी गो0 तुलसीदासजी के वचन ‘सब जानहि प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहे बिन रहा न कोई।।’ को चरितार्थ करते हुए ऋषि-मुनि एवं साधु-संतों ने देशानुकूल विभिन्न भाषाओं में; किन्तु एक ही राग वा स्वर में उस ‘ओ3म्’-उद्गीत के गीत गाये हैं।
उद्गीत=(उत्+गीत) जो यहाँ का नहीं-अपितु वहाँ का, ऊपर का गीत हो। दूसरे शब्दों में हम ऐसा भी कह सकते हैं-वह पारलौकिक प्रकम्प वा ध्वनि, जिसको अभिव्यंजित करने में समस्त ऐहलौकिक वाणी सर्वथा सामर्थ्यहीन हो। इस हेतु तन्त्र विशेष में इसको ‘अकृतनाद’ कहा गया है। यथार्थतः प्रकृत नाद को कृत्रिम भाषा में लाने की चेष्टा, उसे विकृत कर बताने के व्यतिरिक्त और हो ही क्या सकता है?
साधारणतया सभी वर्णात्मक शब्द चाहे वे स्वर हों वा व्यंजन, ह्रस्व हों या दीर्घ, अन्तस्थ हों वा ऊष्म; मुख, ओष्ठ नासिका, जिभ्या एवं कण्ठादि के द्वारा उच्चरित होते हैं। किन्तु वह अलौकिक ‘ओ3म्’ वा प्रणव-ध्वनि स्वर- व्यंजन-रहित,ह्रस्व-दीर्घ एवं अन्तस्थ-ऊष्मवर्ण हीन है। इस हेतु वह सभी बाह्याभ्यंतरेन्द्रिय से सर्वथा अग्राह्य होने के कारण सन्तों ने उसे ‘अबोल वाणी’ कहकर घोषित किया है। और अमृतनाद उपनिषद में इस भाँति कहा है-
‘अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अकण्ठ ताल्वोष्ठं अनासिकं च।
अरेफ जातं उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित्।।’
सन्त कबीर साहब ने इस शब्द को ‘सहज-ध्वनि’ की उपाधि दी है और बताया है कि यह सहज वा सहजात-ध्वनि स्वाभाविक रूप से सबके अन्दर-अन्दर सतत होती रहती है; किन्तु इसकी उपलब्धि के लिए ‘मुँह-कर’ के क्रिया-कलाप की, जिभ्या-द्वारा जाप की अथवा किसी प्रकार के शारीरिक श्रम की कतई जरूरत नहीं, मात्र सुरत को उस शब्द में लगाने की आवश्यकता है।
‘सहजे ही धुन होत है, हरदम घट के माहिँ।
सुरत शब्द मेला भया मुख की हाजत नाहिँ।।
मुख कर की मेहनत मिटी, सतगरु करी सहाय।
घट में नाम प्रगट भया, बक बक मरै बलाय।।
शब्द शब्द बहु अंतरा, वो तो शब्द विदेह।
जिभ्या पर आवै नहीं, निरख परखि कर देह।।’
इसी अन्तर्नाद में सुरत वा चेतन-वृत्ति के योग को ‘अजपा जाप’ भी कहते हैं। इसका संकेत सद्गुरु से प्राप्त किया जाता है। बिना क्रियावान शुद्धाचारी सन्त सद्गुरु के इस जाप की जानकारी नहीं हो सकती। ‘अजपा-जाप’ के सम्बन्ध में निम्नलिखित विभिन्न सन्तों की वाणियों पर ध्यान दीजिये-
‘जाप-अजपा हो सहज धुन, परख गुरुगम धरिये।
होत ध्वनि रसना बिना, कर माल बिन निरवारिये।।
अजपा सुमिरन घट बिसे, दीन्हा सिरजनहार।
ताही सूँ मन लगि रहा, कहै कबीर विचार।।’
(कबीर साहब)
‘उलटि कमलु अमृत भरिआ इहु मन कतहु न जाइ।
अजपा जाप न बीसरै आदि जुगादि समाइ।।’
(गुरु नानक साहब)
सन्त बुल्ला साहब के पारिभाषिक शब्दों में कहिये, अथवा सन्तों की सधुक्कड़ी भाषा में ‘अजपा जाप’ की क्रिया का रहस्य इस भाँति जानिये-
‘सामहिं उगवै सूर भोर शशि जागई।
गंग जमुन के संगम अनहद बाजई।।
‘अजपा जापहिँ’ जाप सोहं डोरि लागई।
बुल्ला ता में पैठि जोति में जागई।।’
-बुल्ला साहब
सन्त शिवनारायण स्वामीजी के वचनों में-
‘तू ऐसो मन गगन में मगन रहो।।टेक।।
आवत जात उर्ध मुख पीवत संसा दाम दियो।
सुरति सम्हारि ब्रह्म परगासो द्वादस मध्य गयो।।
इंगला पिंगला दुइ नारि सिधरो सुषमन आनि दियो।
ताटक नाटक घण्ट बजावत श्रवण सुधारि धरो।।
शब्द अनाहत होत महाधुनि मकरा तार दियो।
शिवनारायण बड़े भाग्य सों ‘अजपा जाप’ पायो।।’
‘अनहद अपने साथ है, ‘अजपा’ साको नाम।
अमल करो अपनाइ के, अमरनाम घर ठाम।’
(परमहंस लक्ष्मीपतिजी महाराज)
‘जाके लगी अनहद तान हो, निर्वाण निर्गुण नाम की।।टेक।।
जिकर करके शिखर हेरे, फिकर रारंकार की।
जाके लगी ‘अजपा’ झलकै, जोत देख निसान की।।’
(जगजीवन साहब)
इस सम्बन्ध में और भी कितने शब्द हैं, जो स्थानाभाव एवं लेख-वृद्धि के भय से नहीं दिये जा रहे हैं। किन्तु खेद का विषय है कि पर्याप्त सन्त-वाणियों के प्रस्तुत रहते हुए भी ‘पानी बिच मीन पियासी’ को चरितार्थ करनेवाले आज भी कतिपय सज्जन ऐसे हैं, जो मन-ही-मन वा श्वास के सहारे ओ3म् के उच्चारण को ‘अजपा जप’ वा ‘प्रणव-साधन ’ समझते हैं। उन्हें उपर्युक्त वर्णनानुसार भी इस बात की अभिज्ञता होनी चाहिए कि ‘ओ3म्’ का उच्चारण नहीं हो सकता। भगवान श्रीकृष्ण ने भी तो श्रीमद्भगवद्गीता (8/12-13) में स्पष्ट कह दिया है कि-
‘सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।12।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।13।।’
इन्द्रियों के सब द्वारों को रोक कर, मन को हृदय में निग्रह कर, मस्तक में प्राण को धारण करके, समाधिस्थ होकर ‘ॐ’ ऐसे मेरे एकाक्षर ब्रह्म* का चिन्तन करता हुआ जो मनुष्य देह त्यागता है, वह परम गति को पाता है।
* [गिरामस्म्येकमक्षरम्............(गीता 10/25) अर्थात वाणी में एकाक्षर ओ3म् हूँ।]
‘ओ3म्’ को ‘प्रणव’ भी कहा गया है; यथा-‘प्रकर्षेण नूयतेस्त्य तेऽनेनेतिनौति, स्तौति वा प्रणव ओंकारः’ (भोजवृत्ति) अर्थात जिसके द्वारा नम्रता से स्तुति की जाय अथवा भक्त जिसकी उत्तमता से स्तुति करता है*, वह प्रणव कहलाता है, वह ओ3म् ही है।
* [‘नादानुसन्धान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम्।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णुपदे मनो मे।। (श्रीमदाद्यशंकराचार्य, योगतारावलि)]
दूसरे शब्दों में- ‘प्राण’ अर्थात चेतन के संचरण में जो ध्वनि होती है, उसे प्रणव कहते हैं। अथवा वह चेतन ध्वनि जो चेतन आत्मा के द्वारा ही गृहीत हो, उसे प्रणव कहते हैं।
पातंजल योग में ‘ॐ’ को ‘प्रणव’ की संज्ञा देकर परमात्मा को वाच्य और ‘प्रणव’ को वाचक बताया है; यथा-‘तस्य वाचकः प्रणवः ।।27।। समाधिपाद ।।
प्रणव के विषय में स्वामी श्रीभूमानन्दजी महाराज के वचन भी पठनीय हैं-
(क) स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् ।
ध्यान निर्मथनाभ्यासाद्देव पश्येन्निगूढवत् ।।
(ख) प्रणवो धनु: शरोह्यात्मा ब्रह्मतन्लक्ष्यमच्यते ।
अप्रमत्तेन वेद्धव्य शरवत् तन्मयो भवेत् ।।
(ग) प्रणवात्मकं ब्रह्म ।
(घ) प्रणवात् प्रभवो ब्रह्मा प्रणवात् प्रभवो हरिः ।
प्रणवात् प्रभवो रुद्रः प्रणवोहि परो भवेत् ।।
अर्थ-अपनी देह को नीचे की अरणि और प्रणव को ऊपर की अरणि करके ध्यान रूप मन्थन से छिपी हुई वस्तु के समान देव को देखे। प्रणव धनुष है, आत्मा वाण है, उस वाण का लक्ष्य ब्रह्म है। जितेन्द्रिय पुरुष को उसे सावधानी से बेधना चाहिये। वाण के समान तन्मय हो जाय। ब्रह्म प्रणवात्मक है। प्रणव से ब्रह्मा है, प्रणव से हरि है, प्रणव से रुद्र है और प्रणव ही परतत्त्व है।
परन्तु वर्त्तमान युग में प्रणव के स्वरूप को बहुत थोड़े लोग ही जानते हैं। अधिक लोग तो ओंकार के उच्चारण को या मन-ही-मन जप करने को प्रणव-साधन समझते हैं। परन्तु उपनिषद के कथनानुसार ॐकार का उच्चारण नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह स्वर या व्यंजन नहीं है और वह कण्ठ, होंठ, नासिका, जीभ, दाँत, तालु और मूर्द्धा आदि के योग से या इनके घात-प्रतिघात से उच्चरित नहीं होता।
‘अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अकण्ठताल्वोष्ठम् अनासिकं च ।
अरेफ जातम् उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।।’
(अमृतनाद उपनिषद)
अब प्रश्न यह है कि साधारणतः सभी शब्द कण्ठादि के द्वारा ही ध्वनित होते हैं; परन्तु यदि प्रणव कण्ठादि में वायु के घात-प्रतिघात के बिना ही ध्वनित होता है, तो फिर वह ध्वनि क्या है और किस प्रकार से, किस उपाय से अथवा किस साधन से वह अनुभूत हो सकती है। उपनिषदादि में इस ध्वनि को अनाहत नाद कहा गया है। तंत्र विशेष में इसका नाम है अकृतनाद। जिस साधन का अभ्यास करने से यह नाद स्वतः ही उत्पन्न होता है, वही इसका वास्तविक साधन है और वही यथार्थ उपाय है। अन्यान्य साधन तो अनुपाय ही है-अनुपायाः प्रकीर्तिताः।’
वाचक और वाच्य में उसी भाँति भेदाभेद है, जैसे नाम और नामी में। गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
समुझत सरिस नाम अरु नामी ।
प्रीति परस्पर प्रभु अनुगामी ।।
नाम रूप दुइ ईस उपाधी ।
अकथ अनादि सुसामुझि साधी ।।’
इसीलिये- को बड़ छोट कहत अपराधू ।
सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू ।।आदि।।’
श्रीमद्भागवत स्कन्ध 11, अध्याय 21, श्लोक 36 में इसको ‘शब्द-ब्रह्म’ और ‘प्राणमय शब्द’ कहा गया है; यथा-
‘शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रिय मनोमयं।
अनन्त पारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत्।।’
अर्थ- शब्दब्रह्म अत्यन्त दुर्बोध है। वह प्राणमय, मनोमय और इन्द्रियगम्य-तीन प्रकार का है तथा समुद्र के समान अनन्त पार, गंभीर और कठिनता से पार किये जाने योग्य है।
योगशिखोपनिषद के तृतीय अध्याय में ‘शब्दब्रह्म’ को ‘अक्षर’ और ‘परमनाद’ की उपाधि से विभूषित किया गया है। ‘अक्षरं परमो नादः शब्द ब्रह्मेति कथ्यते।’
अर्थ- अक्षर (अनाश) परम नाद को शब्दब्रह्म कहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता अ0 6/44 में हम भगवान श्रीकृष्ण द्वारा भी ‘शब्दब्रह्म’ का प्रतिपादन पाते हैं; यथा-
‘पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्माति वर्तते।।’
पूर्वाभ्यास के कारण वह (साधक) अवश्य योग की ओर खिंचता है। योग का जिज्ञासु भी शब्दब्रह्म के परे चला जाता है।
शब्दब्रह्म के सम्बन्ध में महाभारत, शान्तिपर्व में कपिलजी ने स्यूमरश्मि से कहा है-ब्रह्म के दो रूप समझने चाहिये-शब्दब्रह्म और परब्रह्म। जो पुरुष शब्दब्रह्म में पारंगत हो जाता है, वह परब्रह्म को भी प्राप्त कर लेता है। (कल्याण वर्ष 17, फरवरी 1943, संख्या 7, पूर्ण संख्या 199)
महाभारत के उपर्युक्त वाक्य का ब्रह्मविन्दूपनिषद के निम्नलिखित मन्त्र से अद्भुत सामंजस्य है; यथा-
द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत्।
शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति।।
अर्थात दो विद्याएँ समझनी चाहिये, एक तो शब्दब्रह्म और दूसरा परब्रह्म। शब्दब्रह्म में जो निपुण हो जाता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है।
सन्तों की वाणियों में भी हमें ‘शब्दब्रह्म’ की भरपूर चर्चा मिलती है। अतएव हम उपरिलिखित महाभारत और ब्रह्मविन्दूपनिषद के विषय का मेल सन्तवाणी से मिलाकर देखें।
‘शब्दब्रह्म परब्रह्म भली विधि जानिये।
पाँच तत्त्व गुण तीन मृषा करि मानिये।।
बुद्धिवन्त सब सन्त कहैं गुरु सोइ रे।
और ठौर शिष जाइ भ्रमे जिनि कोइ रे।।’
(सन्त सुन्दरदास जी)
‘सान्त निरपेच्छ निर्मम निरामय अगुण,
शब्द ब्रह्मैक पर ब्रह्म ज्ञानी ........,
(गो0 तुलसीदासजी)
‘शब्द ब्रह्म साध्यो नहीं, शान्ति शील नहिं कीन।
श्रद्धा अरु संतोष बिनु, शब्द शक्ति सब हीन।।’
* * * (परमहंस लक्ष्मीपतिजी)
‘शास्त्र कारों ने अन्न-ब्रह्म की उपासना सबसे पूर्व करने को कहा तो अवश्य है, पर चरम सुख पाने के लिए ‘शब्दब्रह्म’ की उपासना भी अनिवार्य बतायी है।’
(जन-ज्ञान मासिक का ‘माँ! गायत्री’ विशेषांक से)
संतों ने प्रणव अर्थात ‘ॐ’ स्फोट को सारशब्द कहकर भी अवघोषित किया है; यथा-
‘शब्द शब्द बहु अन्तरा, सार शब्द चित देय।
जा शब्दै साहब मिलैं, सोइ शब्द गहि लेय।।’
(संत कबीर साहब)
‘मन रे तू लागि रहो यहि ओर।
सार शब्द कपाल भीतर, होत अनहद शोर।।’
(संत शिवनारायण स्वामी)
अन्तर्नाद यानी शब्दब्रह्म के संबंध में यजुर्वेद अ0 17/91 में एक मंत्र आया है-
‘चत्वारि शृंगास्त्रयो अस्य पादाः द्वे शीर्षे सप्तहस्ता सो अस्य।
त्रिधाबद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्यां आविवेश।’
इसकी व्याख्या इस प्रकार की गयी है कि एक वृषभ है, जिसके चार शृंग हैं अर्थात नाम, आख्यात (क्रियापद) , उपसर्ग और निपात, तीन पद हैं-भूत, भविष्यत और वर्त्तमान; दो शिर हैं अर्थात शब्द नित्य और अनित्य; उसके सात हाथ- सात विभक्तियाँ हैं। यह शब्द तीन स्थान पर बद्ध है-छाती में, कण्ठ में और शिर में। सुनने से सुख का वर्षण करता है। वह शब्द करता है, उपदेश देता है और ध्वनि रूप होकर समस्त मरणधर्मा प्राणियों में विद्यमान है।
इस मंत्र की व्याख्या में महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि ने कहा है कि शब्दरूपी महान देव मनुष्यों में आकर प्रविष्ट हुआ है अर्थात परब्रह्म स्वरूप और अन्तर्यामी-रूप शब्द मनुष्यों में पैठ गया है। जो पुरुष व्याकरण शास्त्र के ज्ञानपूर्वक शब्दों को संस्कार के साथ व्यवहार में लाता है, वह पाप-रहित हो जाता है और इस अंतःप्रविष्ट शब्दब्रह्म के साथ पूर्ण रूप से मिल जाता है।
यही अन्तःप्रविष्ट नित्य शब्द सम्पूर्ण जगदादि प्रपञ्च को विस्तारित करता है। यह शब्द-रूप ब्रह्म आदि और अंत-रहित है। यह अक्षर है अर्थात विकार-शून्य है। यही जगत के रूप में भासित होता है। इसी शब्दब्रह्म से जगत की रचना होती है।’ (सत्संग-योग, भाग-1)
उपर्युक्त मंत्र के अर्थ में शब्द को नित्य और अनित्य-दोनों ही प्रकार के बताये गये हैं; किन्तु स्मरण रहे आदिशब्द ‘ॐ’ को अनित्य जानना अथवा इसको आकाश का गुण बताना वा कर्णेन्द्रिय का विषय मानना नितान्त भूल होगा; क्योंकि उसका प्रादुर्भाव परमात्मा से होने के कारण परमात्मा की नाईं वह भी नित्य है। वह ‘ॐ’ शब्द आकाश का गुण कदापि हो नहीं सकता। इसका हेतु यह जानना चाहिए कि जड़ाकाश से उत्पन्न शब्द जड़ ही होगा, चेतन नहीं; परन्तु ‘ॐ’ शब्द जड़ नहीं, चेतन है।
दूसरी बात यह है कि जड़ आकाश की उत्पत्ति चेतन ‘ॐ’ शब्द के आविर्भाव के बहुत पश्चात है। सर्वप्रथम, परमात्मा से आदिनाद ‘ॐ’ के प्रस्फुटित होने के कारण इसका अपर नाम ‘स्फोट’ भी है। इस प्रकार परब्रह्म से अक्षर पुरुष यानी चेतन-परा प्रकृति, पुनः क्षर पुरुष-अपरा प्रकृति, महत्तत्त्व, अहं, फिर अहं से सेन्द्रिय और निरिन्द्रिय; ये उभय प्रकार की सृष्टियाँ हुईं। सेन्द्रिय सृष्टि में सर्वप्रथम मन और निरिन्द्रिय सृष्टि में प्रथम आकाश हुआ। इस दृष्टि से चेतन, स्फोट वा ॐ शब्द के अत्यन्त पीछे गगन हुआ। और, तदुत्पन्न शब्द और कितना पीछे हुआ, यह विचारवान विचारकर समझ सकते हैं।
कठोपनिषद अध्याय 2, वल्ली 3, श्लोक 7 में लिखा है-
इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम् ।
सत्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम् ।।’
अर्थात इन्द्रियों से मन श्रेष्ठ है, मन से बुद्धि उत्कृष्ट है, बुद्धि से महत्तत्त्व विशेष है तथा महत्तत्त्व से अव्यक्त उत्तम है।
उपर्युक्त श्लोकों में इन्द्रियों से लेकर अव्यक्त यानी अक्षर पुरुष पर्यन्त का क्रमबद्ध वर्णन हुआ है; किन्तु इसके अन्तर्गत आकाश की कहीं चर्चा नहीं है। जहाँ आकाश का ही अभाव हो, वहाँ उससे प्रादुर्भूत शब्द का मानना, बन्ध्या-पुत्र के समान ही होगा।
मुण्डकोपनिषद (अथर्ववेद का) के मुण्डक 2, खण्ड 1, मन्त्र 3 में है-
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धरिणी ।।’
अर्थात इस (अक्षर पुरुष) से ही प्राण उत्पन्न होता है। इससे ही मन, सम्पूर्ण इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, तेज, जल और सारे संसार को धारण करनेवाली पृथ्वी उत्पन्न होती है।
इस मन्त्र में इन्द्रिय-ग्राम-निर्माण के पश्चात आकाश का होना बताया गया है।
अतएव यह सुनिश्चित रूप से जान लेना चाहिये कि आदिनाद ‘ॐ’, स्फोट वा प्रणव न तो आकाश का गुण है, न कर्णेन्द्रिय का विषय है और न अनित्य शब्द है।
वर्णित वेद एवं उपनिषद-वाक्य के अनुकूल ही सन्त जन भी उक्त विषय का प्रतिपादन करते हैं, जैसा कि सन्त सुन्दरदासजी की वाणी में हम पाते हैं; यथा-
‘भूमि पर अप आपहू के परे पावक है,
पावक के परे पुनि वायुहू बहत है।
वायु के परे व्योम व्योमहू के परे इन्द्री दश,
इन्द्रिन के परे अन्तःकरण रहत है।।
अन्तःकरण पर तीनों गुण अहंकार,
अहंकार पर महत्तत्त्व कूँ लहत है।।
महत्तत्त्व पर मूल माया माया पर ब्रह्म,
ताहितें परात्पर सुन्दर कहत है।।’
विद्वानों ने जिस शब्द को आकाश का गुण बताया है, उसके सम्बन्ध में सभी एकमत नहीं है। कोई उसको नित्य बताते हैं और कोई अनित्य। एक आकाशोद्भव शब्द की स्थिति तावत् पर्यन्त मानते हैं, यावत् पर्यन्त वह कर्णगोचर रहता है। और कुछ सज्जन आकाश की स्थिति-पर्यन्त उस शब्द की स्थिति मानते हैं, जिस आकाश का वह शब्द है। पश्चात उस आकाश के अभाव में उसके शब्द का भी अभाव मानते हैं। नैयायिकों ने शब्द की नित्यता को स्वीकार नहीं किया है; किन्तु महाभाष्यकार पतंजलि ने पदों और वाक्यों को भी नित्य माना है। पुनः ‘मीमांसकों ने क, ख, ग आदि पृथक्-पृथक् वर्णों को तो नित्य माना है; परन्तु वर्णों के समूह रूप पदों और पदसमूह-रूप वाक्यों को अनित्य ही माना है।’ (स्फोट दर्शन) । इस भाँति बाह्य शब्द के विषय में विविध वाद व विवाद हैं। आन्तरिक नाद-आदि- शब्द ‘ॐ’ स्फोट की नित्यता निर्विवाद सिद्ध है; क्योंकि उसका उद्गम आकाश नहीं; स्वयं परम प्रभु परमात्मा है।
इस ‘ॐ’, ‘स्फोट’ वा ‘प्रणव’ के परिज्ञान के लिए हम संस्कृत भाषा, साहित्य और दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान पण्डित रंगनाथजी पाठक-कृत ‘स्फोट दर्शन’ के कुछ अंश का अनुशीलन करें-
स्फोट शब्द का निर्वचन और उसका अर्थ-
यहाँ एक रहस्य और भी है कि ‘स्फुट्यते=प्रकाश्यते अर्थः अनेन इति स्फोटः’, इस व्युत्पत्ति से यही सिद्ध होता है कि जिससे पारमार्थिक अर्थ स्फुटित अर्थात प्रकाशित हो, वही स्फोट है; परन्तु वह अर्थ क्या है? इस जिज्ञासा में यही निश्चित होता है कि ‘अर्थ्यते प्रार्थ्यते सर्वैरिति अर्थः’ जो सबका प्रार्थनीय हो अर्थात जिसको सब लोग चाहते हों, वही वास्तविक अर्थ है। इस स्थिति में परमानन्द ही वास्तविक अर्थ सिद्ध होता है। कारण यह है कि समस्त प्राणियों की स्वाभाविक इच्छा यही होती है कि हमें सर्वोत्तम आनन्द प्राप्त हो, दुःख का लेश भी न हो। इससे यही सिद्ध होता है कि स्वाभाविक इच्छा का विषय और परमानन्द-स्वरूप परमात्मा ही अर्थ शब्द का मुख्य वाच्य है।
‘उसी परमानन्द-स्वरूप परमात्मा के विवर्त्तभूत जो लौकिक आनन्द है और उसके साधन भूत जो धन-विभव आदि हैं, उनमें भी अर्थ-शब्द का व्यवहार लोक में किया जाता है; पर वह भाक्त अर्थात गौण है, मुख्य नहीं। मुख्य अर्थ तो परमानन्द-स्वरूप परमात्मा ही है। इस स्थिति में स्फुटित अर्थात प्रकाशित होता है परमार्थ लक्षण परमानन्द जिससे। इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो परमानन्द-स्वरूप ब्रह्म का प्रतिपादक हो, उसी को स्फोट कह सकते हैं। इस प्रकार, योगरूढ़ स्फोट शब्द प्रणव का सूचक ठहरता है। क्योंकि परमानन्द-रूप परमात्मा का प्रकाशक होने से प्रणव को ही ब्रह्म का वाचक आचार्यों ने स्वीकार किया है। नित्यानन्द-स्वरूप परमात्मा का वाचक प्रणव (ओंकार) ही है। इसी बात को भगवान पतंजलि ने योगसूत्र में कहा है-‘तस्य वाचकः प्रणवः, तज्जपस्तदर्थ भावनम्’, अर्थात उस परमार्थ लक्षण परमात्मा का वाचक प्रणव (ओंकार) है। उस प्रणव का जप और उसके अर्थ (परमात्मा) का ध्यान करना चाहिये।
‘स्फोट और ब्रह्म (आत्मा) में प्रकाश्य-प्रकाशक भाव-
पूर्व में जो स्फोट और स्वात्मस्वरूप ब्रह्म में प्रकाश्य-प्रकाशक भाव कहा गया है, उसे चन्द्रिका के समान समझना चाहिये। जिस प्रकार चन्द्रिका चन्द्र की प्रकाशिका है और रश्मि सूर्य की, उसी प्रकार शब्द भी परमार्थभूत स्वात्मा (ब्रह्म) का प्रकाशक होता है। पतंजलि के उपर्युक्त सूत्र का भाष्य करते हुए व्यासदेव ने कहा है-‘तस्य वाचकः प्रणवः इति, वाच्यः ईश्वरः प्रणवस्य। किमस्य संकेत कृतं वाच्य वाचकत्वमथवा, प्रदीप प्रकाशनंदवस्थितमिति? स्थितोऽस्य वाचकेन सह सम्बन्ध:, संकेतस्तु ईश्वरस्य स्थितमेवमर्थनभिनयति। तद्यथा पितापुत्रयोः स्थित एव सम्बन्ध: संकेते नावद्योत्यते, अयमस्य पिता अयमस्य पुत्र इति। सर्गान्तरेष्वपि वाच्य वाचक शक्त्यपेक्षः तथैव संकेतः क्रियते।’
इस भाष्य का तात्पर्य यह है कि उस परमात्मा का वाचक प्रणव है और प्रणव का वाच्य ईश्वर। शंका-क्या इसका वाच्य वाचकत्व संकेतकृत है अथवा इस वाचक का वाच्य के साथ संबंध प्रदीप-प्रकाश के सदृश संकेत पूर्व से ही अवस्थित है? समाधान-इस वाचक का वाच्य के साथ जो सम्बन्ध है, वह स्थित अर्थात अनादि है, कृत्रिम नहीं। ईश्वर का संकेत तो स्थित अर्थ का ही अभिनय (प्रकाश) करता है। जैसे पिता-पुत्र का सम्बन्ध स्थित ही है, केवल संकेत ही उसका द्योतक (प्रकाशक) मात्र होता है। जैसे यह इसका पिता है और यह इसका पुत्र। सर्गान्तर में भी वाच्य वाचक शक्ति की अपेक्षा से ही उसी प्रकार का संकेत किया जाता है। श्रुति भी कहती है-‘सूर्यचन्द्रमसौ धता यथापूर्वमकल्पयत्’, विधता ने सूर्य, चन्द्र आदि नामों को पूर्व के अनुसार ही किया। भाष्य का यही तात्पर्य है।
उपर्युक्त कथन का रहस्य यह है कि प्रदीप का प्रकाश के साथ, चन्द्रमा का चन्द्रिका के साथ और सूर्य का रश्मि के साथ स्थित (अनादि-सिद्ध) जो आश्रयाश्रयी भाव लक्षण सम्बन्ध है, वह स्वाभाविक होने से अकृत्रिम है। इसी प्रकार, वाच्य ईश्वर का उसके वाचक स्फोट नामक प्रणव के साथ जो वाच्य वाचक भाव लक्षण सम्बन्ध है, वह भी अकृत्रिम होने से अनादि है। इस स्थिति में जिस प्रकार रश्मि के द्वारा सूर्य, चन्द्रिका के द्वारा चन्द्रमा और प्रकाश के द्वारा अग्नि का सबके दृष्टिगोचर होना लोक में देखा जाता है, उसी प्रकार प्रणव नामक स्फोट के द्वारा परमात्मा भी योगियों के हृदय में प्रकाशित होता है। इसीलिये, स्फोट शब्द का निर्वचन दो प्रकार से हो सकता है-‘स्फुटी भवति अर्थः यस्मात्’, अर्थात जिससे अर्थ स्फुटित (प्रकाशित) हो, वह स्फोट है, अथवा ‘स्फुट्यते यः सः स्फोटः’, अर्थात जो प्रकाशित हो, वह स्फोट है। रश्मि से सूर्य स्फुटित होता है अथवा सूर्य से रश्मि, यह निश्चित करना अशक्य है।
इस अवस्था में, प्रणव से ईश्वर प्रकाशित होता है या ईश्वर से प्रणव, यह निश्चित करना हमलोगों के लिए असम्भव-सा है। फिर भी, चन्द्रिका के द्वारा ही चन्द्रमा की उपलब्धि होती है, इसलिए चन्द्रमा को चन्द्रिका ही स्फुटित करती है, इस प्रकार का व्यवहार कर सकते हैं या करते हैं। ऐसे ही प्रणव के द्वारा ईश्वर की उपलब्धि होती है, इसीलिये प्रणव से ही परमात्मा प्रकाशित होता है, इस प्रकार व्यवहार दृष्टि से प्रणव को ही स्फोट मानना समुचित प्रतीत होता है। इसलिये, प्रणव ही वास्तविक स्फोट शब्द का मुख्य अर्थ है, यह सिद्ध होता है।’
किन्तु, यह दृढ़तापूर्वक जान लेना चाहिये कि यह ‘अजपाजप’, ‘प्रणव-साधन ’ वा ‘शब्दब्रह्म’ की उपासना आरम्भिक नहीं, वरन अन्त की-अन्तिम साधना है, जिसमें निष्णात होने पर परमात्मा दूर वा सुदूर नहीं, हरदम हाजिर हजूर रहता है। सन्त कबीर साहब ने बड़ी दृढ़ता से कहा है-‘शब्द गह्यो जीव संसय नाहीं, साहब भयो तेरो संग।’ इसका कारण यह है कि शब्द में अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करने का गुण होता है। ‘आदिशब्द’, ‘ओ3म्’ वा प्रणव ध्वनि का उद्गम परम प्रभु परमात्मा है और वह आदिनाद सृष्टि मण्डल के अणु-परमाणु में भी व्यापक है। इसलिये जो साधक साधना द्वारा उस ध्वनि को अपने अन्दर धारण वा ग्रहण करता है, तो उसके आकर्षण से आकृष्ट हो, वह परम प्रभु परमात्मा तक पहुँच जाता है।
माण्डूक्योपनिषद के ‘सर्वंह्यैतद् ब्रह्मायमात्मा ब्रह्मसोऽयमात्मा चतुष्पात्’ द्वारा माण्डूक्योपनिषद में परब्रह्म परमात्मा के स्वरूप का विवेचन करते हुए ऋषि ने उसके चार पादों की कल्पना की है। वाच्य और वाचक की एकता का प्रतिपादन करने के लिए ‘ओ3म्’ की तीन मात्राओं और उसके मात्रा-रहित अव्यक्त रूप के साथ परमात्मा के एक-एक पाद की तुलना करके दिखाया है। यथा-
‘जागरितस्थानो बहिष्प्रज्ञः सप्तांग
एकोनविंशतिमुखः स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः।।3।।’
अर्थात जाग्रत अवस्था की भाँति यह सम्पूर्ण स्थूल जगत जिसका स्थान अर्थात शरीर है, जिसका ज्ञान इस जगत में ‘फैला हुआ है, भूः, भूवः आदि सात लोक ही जिसके सात अंग हैं, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंच कर्मेन्द्रियाँ, पंच प्राण और चतुष्ट्य अन्तःकरण, ये विषयों को ग्रहण करने वाले उन्नीस समष्टि ‘करण’ ही जिसके उन्नीस मुख हैं और जो इस स्थूल जगत का भोक्ता, इसको अनुभव करनेवाला तथा जाननेवाला है, वह वैश्वानर (विश्व को धारण करने वाला) परमेश्वर का पहला पाद है।।3।।
‘स्वप्नस्थानोऽन्तः प्रज्ञः सप्तांग एकोनविंशतिमुखः
प्रविविक्तभुक् तैजसो द्वितीयः पादः।।4।।’
अर्थात् - स्वप्न की भाँति सूक्ष्म जगत ही जिसका स्थान है, जिसका ज्ञान सूक्ष्म जगत में व्याप्त है, पूर्वोक्त सप्तांगोंवाला और उन्नीस मुखोंवाला सूक्ष्म जगत का भोक्ता तैजस-प्रकाश का स्वामी सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ; उस पूर्णब्रह्म परमात्मा का दूसरा पाद है।।4।।
‘यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न
कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तम्।
सुषुप्त स्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन एवानन्दमयो
ह्यानन्द भुक्चे तोमुखः प्राज्ञस्तृतीय पादः।।5।।’
अर्थात् - जिस अवस्था में सोया हुआ (मनुष्य) किसी भी भोग की कामना नहीं करता, कोई भी स्वप्न नहीं देखता, वह सुषुप्ति अवस्था है। ऐसी सुषुप्ति की भाँति जो जगत की प्रलय-अवस्था अर्थात कारण अवस्था है, वही जिसका शरीर है, जो एक रूप हो रहा है, जो एकमात्र आनन्दमय अर्थात आनन्द-स्वरूप ही है, प्रकाश ही जिसका मुख है, जो एकमात्र आनन्द का ही भोक्ता है, (वह) प्राज्ञ (ब्रह्म का) तीसरा पाद है।।5।।
‘नान्तः प्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतः
प्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्।
अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणम
चिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्म प्रत्ययसारं।
प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं
मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः।।7।।’
अर्थात जो न भीतर की ओर प्रज्ञावाला है, न बाहर की ओर प्रज्ञावाला है, न दोनों ओर प्रज्ञावाला है, न प्रज्ञानघन है, न जाननेवाला है, न नहीं जाननेवाला है, जो देखा नहीं गया हो, जो व्यवहार में नहीं लाया जा सकता, जो पकड़ने में नहीं आ सकता, जिसका कोई लक्षण (चिह्न नहीं है, जो चिन्तन करने में नहीं आ सकता, जो बतलाने में नहीं आ सकता, एकमात्र आत्मसत्ता की प्रतीति ही जिसका सार (प्रमाण) है, जिसमें प्रपंच का सर्वथा अभाव है, ऐसा सर्वथा शान्त, कल्याणमय, अद्वितीय तत्त्व (परब्रह्म परमात्मा का) चौथा पाद है। (इस प्रकार ब्रह्मज्ञानी) मानते हैं। वह परमात्मा (है) वह जानने योग्य है।।7।।
इस प्रकार माण्डूक्योपनिषद के अन्तर्गत ब्रह्म के चतुष्पाद का वर्णन है।
‘ओ3म्’ परमप्रभु परमात्मा का प्रतीक है। निखिल विश्व की उत्पत्ति ‘ओ3म्’ से हुई है, ‘ओ3म्’ में स्थित है और ‘ओ3म्’ में ही विलीन होता है। सन्त कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि संतों ने भी सृष्टि की उत्पत्ति का कारण शब्द को ही माना है। दादू दयालजी ने तो स्पष्ट ही कहा है कि शब्द से सभी आबद्ध हैं, शब्द से ही विमुक्ति होती है, शब्द से सबकी उत्पत्ति होती है और शब्द में ही सभी विलीयमान होते हैं; यथा-
‘शब्दैं बन्ध्या सब रहै, शब्दैं सब ही जाय ।
शब्दैं ही सब ऊपजै, शब्दैं सबै समाय ।।’
इस आदिशब्द की उत्पत्ति परब्रह्म परमात्मा से होने के हेतु सन्तों ने शब्द-साधना द्वारा सर्वेश्वर के स्वरूप के साक्षात्कार को ध्रुव-निश्चित बताया है।
आधिभौतिक वैज्ञानिक भी इसके कायल हैं कि शब्द स्वाभाविक ही अपने उद्गम-स्थान पर कर्षण करता है। ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है और शब्द के केन्द्र में जो गुण रहता है, सुननेवाले को अपने उस गुण से गुणान्वित करता है। इसका ज्वलंत प्रमाण है कि ‘तू-तू’ करके पुकारने से कुत्ता निकट आ जाता है। कुएँ में पैठकर आवाज करने की अपेक्षा उच्चाट्टालिका के ऊपर की आवाज सुदूर-व्यापिनी होती है, अभिनय-कर्त्ता के हास्य-विनोद और करुण-क्रन्दन से दर्शक का अश्रु-हास स्वाभाविक है आदि। इस हेतु साधक उस आदिनाद को ग्रहण करके उसके आकर्षण से आकृष्ट हो परम प्रभु परमात्मा का सान्निध्य लाभ करे, इसमें संशय ही क्या है? यह तो अंकगणित के हिसाब सदृश सुनिश्चित है। यदि कुछ अन्तर बताया भी जाय, तो इतना ही कि अंकगणित में एक और एक के योग से दो होता है और यहाँ दो (जीव+ब्रह्म) के योग से एक-ही-एक (ब्रह्म) रहता है। इस नाद-साधना को ऋषियों ने नादानुसन्धान और सन्तों ने सुरत-शब्द-योग की संज्ञा से अभिहित किया। सन्तों एवं ऋषि-मुनियों ने नाद-ध्यान वा नादानुसन्धान की बड़ी महिमा गायी है।
श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी ने तो नादानुसन्धान की स्तुति करते हुए कहा है कि हे नाद! आप परम पद में स्थित कराते हैं, आप ही के प्रसाद से मेरा प्राण-वायु और मन; ये दोनों विष्णु के परम पद में लय हो जायँगे।
‘नादानुसन्धान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्वपदं लयानाम्।
भवत्प्रसादात् पवनेन साकं विलीयते विष्णुपदे मनो मे।।’
(योगतारावलि)
भगवान शंकर ने मनोलय की सवा लक्ष साधनाओं में नादानुसन्धान को सर्वश्रेष्ठ बताया है।
सदाशिवोक्तानि सपादलक्षलयावधानानि वसन्ति लोके।
नादानुसन्धान समाधिमेकं मन्यामहे मान्यतमं लयानाम्।।’
(योगतारावलि)
नादानुसन्धान-सुरत-शब्द-योग वा नाद-साधना पर सन्त कबीर साहब की निजोक्ति निम्नोक्त पंक्तियों में यहाँ पढ़िये। वे कहते हैं कि हे साधु! शब्द की साधना कीजिये। जिस शब्द से सबका प्राकट्य होना हुआ है, उसी शब्द को ग्रहण कीजिये। शब्द से ही गुरु और शिष्य होते हैं; किन्तु उस शब्द को विरले जन ही जान पाते हैं। जिनको अन्तर की गति का प्रत्यक्षीकरण होता है, वे ही यथार्थतः शिष्य और वे ही महान गुरु हैं। वेद, पुराण, शास्त्र, सुर, सन्त और मुनि सभी शब्द का वर्णन करते हैं। जागतिक जन शब्द-श्रवण कर ही वेश-धारण करते हैं। षट् दर्शन शब्द का कथन करते हैं। अनुरागी और वैरागी भी शब्द का कथन करते हैं। शब्द से ही माया जगत का उत्पन्न होना हुआ, शब्द का ही (पिण्ड और ब्रह्माण्ड में) विस्तार है; किन्तु वह आदिशब्द जहाँ से होता है, उसका भेद भिन्न है।
‘साधो शब्द साधना कीजै।
जेहि शब्द से प्रकट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै।।टेक।।
शब्दहि गुरू शब्द सुनि शिष भे, शब्द सो विरला बूझै।
सोई शिष्य सोइ गुरु महातम, जेहि अन्तरगति सूझै।।
शब्दै वेद पुराण कहत है, शब्दै सब ठहरावै।
शब्दै सुर मुनि संत कहत हैं, शब्द भेद नहिं पावै।।
शब्दै सुनि-सुनि भेष धरत है, शब्द कहै अनुरागी।
षट दर्शन सब शब्द कहत है, शब्द कहै वैरागी।।
शब्दै माया जग उतपानी, शब्दै केरि पसारा।
कहै कबीर जहँ शब्द होत है, तवन भेद है न्यारा।।’
सन्त कबीर साहब का उपर्युक्त शब्द-विषयक वर्णन स्पष्ट रूप से ‘ॐकार ध्वनि’ का ही निर्देशन करता है। एक दूसरे स्थल पर उन्होंने ‘ओनामासीधं’ कहकर (जो ‘ॐ नमः सिद्धं’ का अपभ्रंश है) साधना करने कहा है और उस ओर इंगित किया है कि इसी शब्द से सर्वेश्वर ने समस्त सृष्टि का सृजन किया है।
‘पढ़ो मन ओनामासीधं।
ओंकार सकल जग सिरजै, शब्द सरूपी अंग।।’
गुरु नानकदेवजी कहते हैं-‘ओंकार निर्मल और सत् शब्द है, इसी से चारो खानियाँ (अंकुरज, उष्मज, अण्डज और पिण्डज) हुई हैं, फिर चारो खानियों के बहु विस्तार हुए। ओंकार से ही प्रकाश हुआ और इसी से पृथ्वी तथा आकाश बने। ‘ओ3म्’ से ही मेरु, मंदिर, कैलाश बने; ओ3म् से ही पिण्ड और उसमें श्वास-प्रश्वास का संचार हुआ, ओ3म् से ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश-त्रिदेव हुए।
ओअंकार निरमल सतवाणि। ताँते होई सगली खाणि ।
खाणि खाणि महिं बहु विस्तारा। आपे जाने सिरजन हारा ।।
ओअंकार हुआ परगास। साजे धरती धउल आकास ।।
साजे मेरु मंदिर कविलास। साजे पिण्ड धरे बिच सास ।।
ओअंकार हुआ चानायल। तदहुँ तीने देव उपायल ।।’
(प्राण संगली, भाग 1)
आगे अन्य स्थल पर वे पुनः कहते हैं, ‘प्रणव ही आदिनाद ॐकार है और इसी से जल-थल का प्रसार हुआ है। शब्दतत्त्व ही संसार का वीर्य है अर्थात शब्द से ही संसार हुआ है।
प्रणवो आदि एकंकारा ।
जल थल महीअल कीउँ पसारा ।।’
(श्री मुख वाक् पातिशाही 10)
तथा-
‘शब्द तत्तु बीर्ज् संसार ।
शब्दु निरालमु अपर अपार ।।’
पुनः इसकी साधना का संकेत करते हुए वे कहते हैं-
‘पंच मिलहिं परवार सधार ।
मूल ध्यान धर ओअंकार ।’
सन्त दरिया साहब (बिहारी) की वाणी में भी हम ‘ओ3म्’ की तथा इसी ‘ओ3म्’ से जगत के होने की चर्चा पाते हैं; यथा-
ॐ वेद जगत फैलाई ।
मूल वेद विरला केहु पाई ।।
मूल वेद शब्द निजु सारा ।
करनी कथा ज्ञान विस्तारा ।।’
सन्त पलटू साहब ने ‘ओ3म्’ का निर्देशन विविध भाँति से किया है और उन्होंने बड़ी दृढ़ता से कहा है कि (पहुँचे हुए) सद्गुरु रूप दूत के मिल जाने से दुर्बुद्धि भाग गई। प्रभु की समझ हुई और बन्धनकारक सभी कर्म दूरीभूत हो गये। एक ‘ओ3म्’ के सिवा और कुछ नहीं है। संसार में एक ही ब्रह्म व्यापक है, उसको छोड़कर मैं अन्य किसकी पूजा करूँ?
‘अं अः ओङै एक और नाहीं कोइ दूजा ।
एक ब्रह्म संसार करौं मैं किसकी पूजा ।।
समझ पड़ा करतार करम को किया भगूरा ।
अरे हाँ पलटू दुरमति भागी दूति मिला सतगुरु पूरा ।।’
(सन्त पलटू साहब)
सुविज्ञ पाठक इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि गो0 तुलसीदासजी ने नारदजी के द्वारा भगवान श्रीराम से यह वर प्राप्त किया था कि सभी नामों में ‘रामनाम’ श्रेष्ठ हो। इसलिये उन्होंने ‘रामनाम’ में ही ‘ओ3म्’ की सारी महिमा समाहित कर उसकी गाथा गायी है अर्थात उन्होंने ‘ओ3म्’ को ‘रामनाम’ कहा और बताया है कि यह ‘रामनाम’ कृशानु, भानु और हिमकर का कारण है। तात्पर्य यह कि ‘राम’ (र्+आ+म) के अभाव में पावक, पूषण और शशि की स्थिति नहीं रह सकती। जैसे ‘कृशानु’ में से ‘र’ के निकाल लेने से वह ‘किशानु’ हो जायेगा, उसका अर्थ अग्नि नहीं होगा। ‘भानु’ शब्द में ‘आ’ अर्थात आकार ‘ा’ का अभाव होने से ‘भनु’ होगा, जिसका अर्थ ‘सूर्य’ नहीं हो सकेगा। ‘हिमकर’ में ‘म’ के नहीं रहने से ‘हिकर’ हो जायेगा, जिसका अर्थ चन्द्र नहीं होगा।
‘बन्दौं राम नाम रघुवर को।
हेतु कृशानु भानु हिमकर को।
(रामचरितमानस)
इस भाँति ‘राम’ नाम की व्यापकता का दिग्दर्शन कराते हुए गोस्वामीजी ने पुनः उसे विधि हरिहरमय और वेद-प्राण भी कहा है। साथ ही उसे निर्गुण, निरुपम और गुणनिधि कहे बिना भी उनके मन ने नहीं माना है। इसलिए उन्होंने कहा-
‘विधि हरिहरमय वेद प्रान सो।
अगुन अनूपम गुन निधन सो।।’
विधि=ब्रह्मा (रजोगुण) , हरि=विष्णु (सतोगुण) और हर=शिव (तमोगुण) । तात्पर्य यह कि उस निर्गुण ‘ओ3म्’ वा ‘रामनाम’ से ही त्रिगुण की उत्पत्ति हुई है। इस भाँति गो0 तुलसीदासजी के कथनानुसार निर्गुण रामनाम से त्रिगुण का आविर्भाव हुआ है और उपनिषद एवं तंत्रशास्त्र में ‘ओ3म् से। इससे यह सिद्ध है कि ‘ॐ’ शब्द और निर्गुण ‘रामनाम’- ये उभय द्वय नहीं, अद्वय हैं।
कतिपय सज्जन आक्षेप करते हैं कि निर्गुण से त्रयगुण की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? गुण-रहित से सगुण का होना बिल्कुल विपरीत और असम्बद्ध बात है। इसके उत्तर में गोस्वामीजी ने स्वयं प्रश्नोत्तर के रूप में शिव-पार्वती संवाद (रामचरितमानस) में कहा है-
‘जो निर्गुन पुनि सगुन सो कैसे।
जल हिम उपल विलग नहिं जैसे।।’
इसको दूसरी तरह से ऐसा भी कहा जा सकता है कि जिस भाँति अकम्प आकाश से प्रकम्प पवन का प्रादुर्भाव होता है, उसी भाँति निर्गुण से सगुण हुआ है। साथ ही, यह भी समझ लेना आवश्यक है कि अलोल आकाश से वेगवती वायु की उत्पत्ति होने पर भी गगन यथावत ध्रुव-निश्चल ही रहता है, उसी भाँति अगुण ‘ॐ’ वा निर्गुण रामनाम से सगुण रज, सत्, तम के होने पर भी वह निर्गुण का निर्गुण ही रहता है।
‘रामनाम’ का अर्थ होता है-
वह शब्द जो सबमें रमण करता हो अथवा जिसमें योगिजन रमण करते हैं। अर्थात वह सर्वव्यापक शब्द जो सबमें ओत-प्रोत हो।
जैसे गीली मिट्टी की गोली बनाने में जो कम्प होता है तथा उस कम्प में जो ध्वनि होती है, वह ध्वनि स्वाभाविक ही उस गोली के कण-कण में व्यापक होती है। उसी भाँति सृष्टि-सर्जन-हेतु सर्वेश में जो मौज हुई, उससे जो शब्द प्रस्फुटित हुआ, वह शब्द सृष्टि के कण-कण में व्यापक हुआ। इसलिये उस आदिनाद ‘ॐ’ निर्गुण ध्वनि वा शब्द को रामनाम वा सर्वव्यापक शब्द कहकर घोषित किया गया। इसी शब्द को सन्त गरीबदासजी ने अपने शब्दों में ‘निर्गुण निर्मल नाम है, अवगत नाम अवंच’ कहा है।
निर्गुण, निर्मल और इन्द्रिय-अगोचर ‘ॐ’ ध्वनि तो सर्वव्यापक है ही; सगुण और इन्द्रिय-गोचर ‘ओ3म्’ की व्यापकता पर विचार करने पर यह भी बड़ा विलक्षण मालूम पड़ता है और एक बार अपने चमत्कार से सबको आश्चर्यचकित किये बिना नहीं छोड़ता। यह (‘ओ3म्’) स्वाभाविक ध्वनि है और यह मानव मात्र ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र के जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति सभी अवस्थाओं में निरन्तर होती रहती है; किन्तु मानव के अतिरिक्त और कोई भी जीवधारी इसे नहीं जान पाता। मानव भी अपनी स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्थाओं में इसकी अभिज्ञता से अनभिज्ञ ही रहता है, मात्र जाग्रदवस्था में जान पाता है। साथ ही जाग्रदवस्था में भी केवल वे ही जान पाते हैं, जो इसकी कला जानकर जानने की चेष्टा करते हैं।
आप एकान्त में आँख और मुँह बन्द कर चुपचाप बैठ जाइये। अपनी चित्तवृत्ति को समेटकर मात्र श्वास-प्रश्वास पर ध्यान दीजिये। जैसे-जैसे आपमें एकाग्रता आती जायगी, वैसे-वैसे सोहं की ध्वनि मालूम होने लगेगी। अर्थात चित्तैकाग्रता में, श्वास लेते समय ‘सो’ और छोड़ते समय ‘हं की स्फुट ध्वनि सुनाई देगी। इस ‘सोहं’ ध्वनि में भी रहस्य है-‘सो’=स+अ+उ, ‘हं’=ह+म्; अर्थात ‘सोहं’ शब्द ‘ओ3म्’ से ओतप्रोत है। इसलिए ओ3म् को श्वास का प्राण भी कहा गया है। बिना ‘ओ3म्’ के श्वास-प्रश्वास की क्रिया ही नहीं हो सकती। इस तरह जाने-अनजाने सर्वावस्था में ‘ओ3म्’-‘सोहं’ का जप होता ही रहता है। संत सुन्दरदास जी ने कितना सुन्दर कहा है-
‘श्वासोश्वास रातदिन सोहं सोहं होइ जाप,
याहि माला निसदिन दृढ़कै धरतु है।
देह परे इन्द्री परे अन्तःकरण परे,
एक ही अखण्ड जाप ताप को हरतु है।।
काठ की रुद्राक्ष की रु सूतहू की माला और,
इनके फिराये कछु कारज सरतु है।
‘सुन्दर’ कहत एक आतमा अखण्ड रूप,
आप को भजन सो तो आप ही करतु है।।’
स्वामी रामतीर्थ के शब्दों में हम कह सकेंगे-एक बड़ा ही उपयोगी मन्त्र है, जिससे हर एक को परिचित होना चाहिए। वह है-‘सोऽहम्’ (Soham) । अँग्रेजी भाषा में ‘सो’ का अर्थ है ‘ऐसा’; किन्तु संस्कृत भाषा में ‘सो’ का अर्थ है ‘वह’ और ‘वह’ का अर्थ सदा परमेश्वर या परमात्मा है। इस तरह ‘सो’ शब्द का अर्थ परमेश्वर है। भारत में स्त्रियाँ अपने पति का नाम नहीं लेतीं। उसके लिये दुनिया में केवल एक पुरुष है और ‘वह’ (एक पुरुष) उसका पति है। वह स्त्री सदा अपने पति को ‘वह’ कहती है, मानो समग्र विश्व में कोई और व्यक्ति मौजूद ही नहीं है। फलतः उसके लिये ‘वह’ सदा परमेश्वर है और परमेश्वर सदा उसके विचारों में है। इसी तरह वेदान्ती के लिए ‘सो’ शब्द का अर्थ सदा परमेश्वर या परमात्मा है।
‘हम’ (ham) का अर्थ ‘फारसी भाषा में ‘मैं’ है। एच (h) को निकाल दो और वहाँ (I) को बैठा दो और हमें सो-ऐम-आई (So-am-I) ‘वह मैं हूँ’, की प्राप्ति हो जाती है। परमेश्वर मैं हूँ, परमात्मा मैं हूँ......। ‘ओ3म्’ भी इसमें शामिल है। सोऽहम् (Soham) में से एस और एच (s and h) को निकाल दो, हमें ओ3म् (om) मिलता है। सोऽहम् श्वास से आने (जाने) वाली स्वाभाविक ध्वनि है। इस शब्द की पूर्ण महिमा हर समय निरन्तर हमारे मनों में रहनी चाहिये। ....यह एक मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक व्यायाम है।’
‘ॐ’ स्फोट के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्दजी के विचार भी विशेष उल्लेखनीय हैं। “विशाल ब्रह्माण्ड में भी ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ अथवा समष्टि महत् पहले अपने को नाम में और फिर रूप में अर्थात इस दृश्यमान-दिखलाई देने वाले जगत के रूप में प्रकट करते हैं। यह व्यक्त और इन्द्रिय-ग्राह्य जगत ही रूप है, इसकी ओट में अनन्त, अव्यक्त स्फोट है। स्फोट का अर्थ है- सम्पूर्ण जगत की अभिव्यक्ति का कारण शब्द ब्रह्म। समस्त नाम अर्थात भाव का नित्य समवायी उपादान-स्वरूप नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे भगवान इस जगत की रचना करते हैं। केवल इतना ही नहीं, भगवान ने पहले अपने को स्फोट रूप में परिणत किया और फिर इस स्थूल दृश्यमान जगत के रूप में। इस स्फोट का एकमात्र वाचक शब्द ‘ॐ’ है। जब यत्न करने पर भी भाव से शब्द को अलग नहीं किया जा सकता, तब इस ओंकार और नित्य स्फोट में नित्य सम्बन्ध मिलता है। इसलिये यह बात बड़ी सरलता से समझी जा सकती है कि ओंकार रूप सम्पूर्ण नाम-रूप का जनक है। इस पवित्रतम शब्द ॐ से जगत की रचना हुई है। यदि शंका करो कि शब्द और भाव में नित्य सम्बन्ध अवश्य है, पर एक भाव के प्रकट करनेवाले अनन्त शब्द हो सकते हैं। इसलिए सम्पूर्ण जगत की अभिव्यक्ति के कारण-स्वरूप सब भावों को प्रकट करनेवाला केवल एक शब्द ओंकार ही है, यह कहना ठीक नहीं। तो उत्तर में कहा जा सकता है कि ओंकार ही इस प्रकार सर्व भावव्यापी वाचक शब्द है और कोई शब्द इसके समान नहीं है। स्फोट सम्पूर्ण भावों का उपादान है, फिर भी वह कोई पूर्ण विकसित भाव नहीं है। यदि भिन्न-भिन्न भावों के परस्पर भेद को दूर कर दिया जाय, तो यही स्फोट ही शेष रहेगा और किसी वाचक शब्द द्वारा अव्यक्त स्फोट के प्रकाश करने की आवश्यकता होने पर वह उसे इतना विशिष्ट कर देता है कि उसका स्फोटत्व ही नहीं रह जाता। ऐसी दशा में जिस शब्द द्वारा वह बहुत ही अल्प परिमाण में विशेष भावापन्न हो और जो यथासंभव उसके स्वरूप को प्रकाशित करे, वही उसका सबकी अपेक्षा प्रकृत वाचक है। ऐसा प्रकृत वाचक शब्द ओंकार- केवल ओंकार है। क्योंकि अ, उ, म् एक साथ ‘अउम्’ इस प्रकार उच्चरित होने से सब प्रकार के शब्दों के साधारण वाचक हो सकते हैं।”
इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्दजी के कुछ और विचार पढ़ें-
‘अ’ सभी में अन्य अक्षरों की अपेक्षा अल्प विशेषता रखनेवाला अक्षर है। इसीलिये गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है- “मैं अक्षरों में अकार हूँ।” प्रत्येक स्पष्ट उच्चारण किया जानेवाला शब्द मुख में जिह्वा के मूल से लेकर होठों तक स्पर्श करके बोला जाता है। ‘अ’ का उच्चारण कण्ठ से होता है। ‘म’ ओष्ठ्य वर्णों में अन्तिम अक्षर है और ‘उ’ जिह्वा-मूल से प्रारम्भ होकर होठों पर समाप्त होनेवाली शक्ति के पूर्ण भाव का द्योतक है। प्रकृत से उच्चारित होने पर यह ओंकार सम्पूर्ण शब्दोच्चारण-व्यापार का सूचक है और किसी शब्द में यह शक्ति नहीं है। इसलिये ओंकार ही स्फोट का ठीक उपयोगी वाचक है और स्फोट ओंकार का प्रकृत वाच्य। वाचक और वाच्य अलग नहीं हो सकते। इसलिये ‘ॐ’ और स्फोट एक ही पदार्थ है। स्फोट व्यक्त जगत का सूक्ष्मतम अंश है, ईश्वर का अत्यन्त निकटवर्ती और ईश्वरीय ज्ञान का प्रथम प्रकाश है। इसलिये ओंकार ईश्वर का प्रकृत वाचक है।’
मेरे परम पूज्य गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने सारशब्द की निस्बत क्या कहा है, उसका भी अध्ययन, मनन एवं अनुशीलन अत्यन्त अपेक्षित है-
‘सारशब्द अलौकिक शब्द है। परम अलौकिक से ही इसका उदय है। विश्व-ब्रह्माण्ड तथा पिण्ड आदि की रचना के पूर्व ही इसका उदय हुआ है। इसलिये वर्णात्मक शब्द, जो पिण्ड के बिना हो नहीं सकता अर्थात मनुष्य-पिण्ड ही जिसके बनने का कारण है वा यों भी कहा जा सकता है कि लौकिक वस्तु ही जिसके बनने का कारण है, उसमें सारशब्द की नकल हो सके, कदापि संभव नहीं है। सारशब्द को जिन वर्णात्मक शब्दों के द्वारा जनाया जाता है, उन शब्दों को बोलने से जैसी-जैसी आवाजें सुनने में आती हैं, सारशब्द उनमें से किसी भी तरह सुनने में लगे, यह कदापि सम्भव नहीं है। राधास्वामीजी के ये दोहे हैं कि-
‘अल्लाहू त्रिकुटी लखा, जाय लखा हा सुन्न ।
शब्द अनाहू पाइया, भँवर गुफा की धुन्न ।।
हक्क-हक्क सतनाम धुन, पाई चढ़ सच खंड ।
सन्त फकर बोली युगल, पद दोउ एक अखंड ।।’
राधास्वामी मत में त्रिकुटी का शब्द ‘ॐ’, सुन्न का ‘ररं’, भँवर गुफा का ‘सोहं’ और सतलोक अर्थात सच खण्ड का ‘सतनाम’ मानते हैं और उपर्युक्त दोहों में राधास्वामीजी बताते हैं कि फकर अर्थात मुसलमान फकीर त्रिकुटी का शब्द ‘अल्लाहू’, सुन्न का ‘हा’, भँवर गुफा का ‘अनाहू’ और सतलोक का ‘हक्क-हक्क’ मानते हैं।
उपर्युक्त दोहों के अर्थ को समझने पर यह अवश्य जानने में आता है कि सारशब्द की तो बात ही क्या, उसके नीचे के शब्दों की भी ठीक-ठीक नकल मनुष्य की भाषा में हो नहीं सकती। एक सतलोक वा सच खण्ड के शब्द को ‘सतनाम’ कहता है और दूसरा उसी को ‘हक्क-हक्क’ कहता है, और पहला व्यक्ति दूसरे के कहे को ठीक मानता है, तो उसको यह अवसर नहीं है कि तीसरा जो उसी को ‘ॐ’ वा राम कहता है, उससे वह कहे कि ‘ॐ’ और ‘राम’ नीचे दर्जे के शब्द हैं, सतलोक के नहीं। अतएव किसी एक वर्णात्मक शब्द को यह कहना कि यही खास शब्द सारशब्द की ठीक-ठीक नकल है, अत्यन्त अयुक्त है और विश्वास करने योग्य नहीं है।
अव्यक्त से व्यक्त हुआ है अर्थात सूक्ष्मता से स्थूलता हुई है। सूक्ष्म स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है। अतएव आदि-शब्द सर्वव्यापक है। इस शब्द में योगिजन रमते हुए परम प्रभु सर्वेश्वर तक पहुँचते हैं अर्थात इस शब्द के द्वारा परम प्रभु सर्वेश्वर का अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ज्ञान होता है, इसलिये इस शब्द को परम प्रभु का नाम-रामनाम कहते हैं। यह सबमें सार रूप से है तथा यह अपरिवर्त्तनशील भी है। इसीलिये इसको सारशब्द, सत्यशब्द और सत्यनाम भारती सन्तवाणी में कहा है। और उपनिषदों में ऋषियों ने इसको ‘ॐ’ कहा है। इसीलिये यह आदिशब्द संसार में ‘ॐ’ कहकर विख्यात है।’
प्रायः प्रत्येक भाषा का प्रथमाक्षर ‘अ’ है। जैसे- अँगरेजी में (A) अ, ‘फारसी और अरबी में (|) आलिफ और भारतीय विभिन्न भाषाओं में तो ‘अ’ है ही। ‘अ’ को एकाक्षर ब्रह्म भी कहा गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता 10/33 में स्पष्ट ही कहा है कि ‘अक्षराणामकारोऽस्मि’ अर्थात ‘मैं अक्षरों में अकार हूँ’ और गीता 10/25 में भी उन्होंने कहा है-“गिरामस्म्येकमक्षरम्’ अर्थात वाणी में एकाक्षरी ‘ॐ’ मैं हूँ।” जिस प्रकार ब्रह्म सर्वव्यापक है, उसी तरह अक्षरों में ‘अ’ भी व्यापक है। जैसे परमात्म-स्वरूप को जानने के लिए ध्वन्यात्मक अनाहत ओ3म्-‘स्फोट’-‘उद्गीथ’ आदि प्रतीक है वा प्रतिनिधि-स्वरूप है, उसी तरह उस ध्वन्यात्मक अनाहत ‘ॐ’, ‘स्फोट-उद्गीथ’ का ज्ञान कराने के लिए वर्णात्मक ‘ॐ’ ‘स्फोट और उद्गीथ’ है। दूसरे शब्दों में ऐसा भी कहा जा सकता है कि परमात्म वाच्य का ध्वन्यात्मक ‘ओ3म्’, स्फोट, उद्गीथ वाचक और ध्वन्यात्मक ॐ स्फोट, उद्गीथ वाच्य का वर्णात्मक ओ3म्, स्फोट, उद्गीथ वाचक है।
एक जमाना था जबकि इस देश में ‘स्त्रीशूद्रोनाधीयताम्’-‘स्त्री तथा शूद्र को वेद नहीं पढ़ना चाहिये’ की ध्वनि चतुर्दिक मुखरित थी। उस समय ‘ओ3म्’ उच्चारण करने का अधिकार द्विजातियों के व्यतिरिक्त अन्य किसी जाति को न था।
संतावतार विभिन्न वर्णों में होने के कारण भी, उक्त सामयिक सामाजिक संस्कृति की मर्यादा में व्याघात न हो, इस दृष्टिकोण को अपनाये रहकर उन सन्तों ने ‘ओ3म्’ को विविध संज्ञाओं से अभिघोषित किया। अतएव सन्तों की वाणियों में ‘ओ3म्’ का नामान्तर रामनाम, सतनाम आदिनाम, अविगत नाम, अनाहत नाद, सारशब्द, आदिशब्द प्रभृति विभिन्न नामों को पाते हैं।
यथा-
‘शब्द शब्द बहु अन्तरा, सार शब्द चित देय।
जा शब्दै साहब मिलै, सोइ शब्द गहि लेय।।
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह।
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह।।’
(कबीर साहब)
‘ओ3म्’ अकृतनाद, ध्वन्यात्मक अनाहत नाद वा आघात-रहित नाद है, फिर भी कतिपय सन्तों ने स्थल-स्थल पर इसका ‘अनहद शब्द’ कहकर भी वर्णन किया है; यद्यपि उभय शब्दों (अनहद और अनाहत) के अर्थों में अनेक पार्थक्य हैं। सन्त शिवनारायण स्वामीजी कहते हैं-‘सार शब्द कपाल भीतर होत अनहद शोर।’
संत चरणदासजी भी उस ‘ओ3म्’ ध्वन्यात्मक अनाहत ध्वनि को अनहद ध्वन्यात्मक ध्वनि की ही संज्ञा से अभिहित कर उसकी महिमा-विभूति का वर्णन इस भाँति करते हैं-
‘अनहद शब्द अनन्त (असीम) है और वह दूर से भी दूर है। यह जड़-विहीन निर्मल चेतन है और पिण्ड में भरपूर व्यापक है। यह (‘ओ3म्’) परब्रह्म परमात्मा है (‘तस्य वाचकः प्रणवः’-पातंजल योग। वाचक और वाच्य अभिन्न है) । इस (‘ओ3म्’) के ध्यान करनेवाले की सारी वासनाएँ छूटती हैं, जीव-भाव मिटता है और वह परमात्म- स्वरूप ही हो जाता है।
अनहद शब्द अपार दूर सूँ दूर है ।
चेतन निर्मल शुद्ध देह भरपूर है ।।1।।
निःअच्छर है ताहि और निःकर्म है ।
परमातम तेहि मानि वही परब्रह्म है ।।2।।
या के कीने ध्यान होत है ब्रह्म ही ।
धरै तेज अपार जाहिं सब भर्म ही ।।3।।
वा पटतर कोइ नाहिं जो यों ही जानिये ।
चाँद सूर्य्य अरु सृष्टि के माहिं पिछानिये ।।4।।
या को छोड़ै नाहिं सदा रहै लीन हीं ।
यही जो अनहद सार जान परवीन हीं ।।5।।
यों जिव आतम जानि जो अनहद लीन हो ।
सो परमातम होय जीवता जाय खो ।।6।।
ध्यानी को मन लीन होय अनहद सुनै ।
आप अनाहद होय वासना सब भुनै ।।7।।
पाप पुन्य छुटि जायँ दोऊ फल ना रहैं ।
होय परम कल्याण जो तिरगुण ना गहैं ।।8।।
-सन्त चरणदासजी
नादानुसन्धान के अभ्यास से प्राप्त लाभ की विशेष जानकारी के लिए नादविन्दूपनिषद के निम्न अवतरण पठनीय हैं-
‘मकरंदं पिबन्भृंगो गन्धन्नापेक्षते यथा ।
नादासक्तं सदाचित्तं विषयं न हि कांक्षति। ।
बद्ध: सुनादगन्धेन सद्यः संत्यक्तचापलः ।।42।।’
अर्थात जिस प्रकार मधुमक्खी मधु-पान करती हुई उसकी सुगंध की चिन्ता नहीं करती है, उसी प्रकार जो चित्त नाद में सर्वदा लीन रहता है, विषय की इच्छा नहीं करता है; क्योंकि वह नाद की मिठास में वशीभूत होकर चंचल प्रकृति का परित्याग कर चुका है।।42।।
‘नादग्रहणतश्चित्तमन्तरंग भुजंगमः ।
विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्रचिन्न हि धवति ।।43।।’
अर्थात नाग रूप चित्त नाद का अभ्यास करते-करते पूर्ण रूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूलकर अपने को नाद में एकाग्र करता है।।43।।
‘मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।।44
अर्थात मदमस्त गजराज रूप मन, जो विषय-वाटिका में विचरण करता है, को वश में लाने के लिए (अन्तर्नाद) अंकुश का काम करता है।।44।।
‘नादोऽन्तरंग सारंग बंधने वागुरायते ।
अन्तरंगसमुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।45।।
अर्थात हिरण-रूप चंचल चित्त को बाँधने के लिये यह नाद पाश का काम करता है और समुद्र-तरंग रूप चित्त के लिए तट का।
अन्तर्नाद का अभ्यास वा नादानुसन्धान की साधन-प्रक्रिया गुरुगम्य है। फिर भी शब्दों में जहाँ तक कहा जा सकता है, सांकेतिक भाषा में सन्त चरणदासजी ने उसकी साधना-पद्धति इस भाँति बतायी है-
‘तीनों बन्द लगाय अस्थिर अनहद आराधै।
सुरत निरत का काम राह चल गगन अगाधै।।
सुन्न सिखर चढ़ि रहै दृढ़ जहाँ आसन करै।
भन चरणदास ताड़ी लगै सो रामदरस कलिमल हरै।।’
तात्पर्य यह कि आँख, कान और मुँह को बन्द करके अनहद की आराधना करे।
त्रिबंद की चर्चा हम हठयोगियों और राजयोगियों दोनों में पाते हैं। किन्तु, युगल योगियों की इस साधना में अन्तर यह है कि हठयोगियों का त्रिबंद- मूल, जालन्धर और उड्डियान हैं तथा राजयोगियों का यानी सुरत-शब्द योगियों का- आँख, कान एवं मुख। जैसे-
आँख कान मुख बन्द कराओ। अनहद झींगा शब्द सुनाओ।
दोनों तिल एक तार बनाओ। तब देखो गुलजारा है।।’
(संत कबीर)
गुरु नानकदेवजी के वचन में हम कह सकेंगे-
‘तीन बन्द लगाय कर, सुन अनहद टंकोर ।
नानक सुन्न समाधि में, नहीं साँझ नहिं भोर ।।’
गुरु नानकदेवजी महाराज की भाँति संत चरणदास जी महाराज की शिष्या परम भक्तिन सहजोबाई भी त्रयबंद की बात कहती हैं-
‘तीनों बन्द लगाय के, अनहद सुनै टकोर ।
सहजो सुन्न समाधि में, नहीं साँझ नहिं भोर।।’
और परम गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने इसका विशद विवेचन स्वरचित ग्रंथ ‘सत्संग-योग’ के चौथे भाग में किया है, जिसका कुछ अंश यहाँ उद्धृत किया जा रहा है-
‘जबतक नादानुसन्धान का अभ्यास करने की गुरु-आज्ञा न हो केवल मानस जप, मानस-ध्यान और दृष्टियोग के अभ्यास करने की ही गुरु-आज्ञा हो, तब तक दो ही बन्द (आँख-बन्द और मुँह-बन्द) लगाना चाहिये। नादानुसन्धान करने की गुरु-आज्ञा मिलने पर आँख, कान और मुँह तीनों बन्द लगाना चाहिये।’
‘तीनों बन्द लगाइ देखि, सुनि धरि ध्वनि धारा।
चलिय शब्द में खिंचत, बजत जो विविध प्रकारा।।
झिंगुर का झनकार, भँवर गुंजार हो। अरे हाँ रे मेँहीँ,
घण्ट शंख सहनाइ, आदि ध्वनि धार हो।।’
किन्तु यह तो ओ3म् की मध्यकालीन साधना है। इसके पूर्व और पर की साधना का सोपान इस भाँति है-
सर्वप्रथम अष्टांग योग के यम-नियमों का पालन करते हुए साधक को पद्मासन, सुखासन, गोदेहिकासन, उत्कुटिकासन वा अन्य किसी भी स्थिरासन से, जिसमें सिर, गला और मेरुदण्ड सीधा रहे, नेत्र बन्द करके बैठ जाना चाहिए। पश्चात मन के समस्त विचार एवं विकार का परित्याग कर एकाग्र और पवित्र मन से ‘ओ3म्’ का मानस जप और मानस ध्यान करना चाहिये।*
*[स्वरचित एक पद्य में मैंने ‘भजो ओ3म् ओ3म् प्रभुनाम यही’ लिखा है; किन्तु इस तरह मेरे कहने का अभिप्राय किसी एक नाम पर जोर डालने का नहीं है, बल्कि दादू दयाल जी के ‘दादू सिरजनहार के, केते नाम अनन्त। चित भावै सो लीजिए, यों सुमिरै साधू संत।।’ की भाँति उदार भावना है। साधक अपने गुरूपदेशानुकूल ईश्वरवाचक किसी भी नाम का जप और ध्यान कर सकते हैं।–मेँहीँ]
अथवा गुरु-प्रदत्त मंत्र का जप और उनके बताये हुए रूप का ध्यान करे। पश्चात उसको भी त्याग कर शून्य में ध्यान करे। शून्य ध्यान को ही सूक्ष्म ध्यान वा विन्दु ध्यान कहते हैं। सूक्ष्म-ध्यान, विन्दु-ध्यान वा ज्योतिर्ध्यान की चर्चा हम वेद, उपनिषदादि सभी अध्यात्म-ग्रंथों में पाते हैं और संतों की वाणियों के लिए तो कहना ही क्या? समस्त संतों की वाणियों में इसका भरपूर वर्णन मिलता है। यह ध्यान दृष्टियोग के द्वारा किया जाता है, जिसे शाम्भवी मुद्रा और वैष्णवी मुद्रा भी कहते हैं।
यूँ तो दृष्टि-साधन विभिन्न प्रकार के हैं; किन्तु सबमें तीन किस्मों (अमा, प्रतिपदा और पूर्णिमा) की प्रधानता है। इन तीनों में भी सर्वसाधारण के लिए सरल, सुगम, कुशल-साध्य और आपदाविहीन अमादृष्टि का प्रयोग है। ऋग्वेद, सूक्त 37 में इसको ‘अभिमुख’-दृष्टि-योग कहा गया है; यथा-
‘अर्वाचीनं सु ते मन उत चक्षुः शतक्रतो ।
इन्द्र कृण्वन्त् वाध्तः ।।2।।’
अर्थात हे ऐश्वर्यवान्! तेजस्वी पुरुष! हे अनेक उत्तम प्रज्ञाओं और कर्मों वाले! जो वाणी द्वारा दोषों का नाश करनेवाले, शास्त्रों और उत्तम उपायों को धारण करने वाले विद्वान पुरुष हैं, वे मन, ज्ञान को और आँखों वा दर्शन-शक्ति को अपने अभिमुख वृद्धिशील करें।
इस सूक्ष्म-ध्यान वा शून्य-ध्यान की विशेष अभिज्ञता के लिए तेजोविन्दूपनिषद, श्रीमद्भगवद्गीता, मनुस्मृति तथा संतवाणी की निम्नलिखित पंक्तियों पर ध्यान दें।
‘तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् ।’
- तेजोविन्दूपनिषद
अर्थात हृदय-स्थित विश्वात्म-तेजस् स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है।
‘कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।।’
(गीता 8/9)
अर्थ-जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियन्ता, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म सबके धारण-पोषण करनेवाले अचिन्त्यस्वरूप सूर्य के सदृश नित्य चेतन प्रकाशरूप और अविद्या से अति परे शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमेश्वर का स्मरण करता है।
प्रशासितारं सर्वेषामणीयां समणोरपि ।
रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम् ।।’
(मनु0 अ0 12।112)
अर्थात जो सबका शासन करनेवाला, अणु से भी अत्यन्त सूक्ष्म, स्वर्ण के समान कांतिवाला, स्वप्नावस्था के सदृश बुद्धि से जाननेयोग्य है, उस परम पुरुष को जानें।
‘बाँका परदा खोलि कै, सन्मुख ले दीदार ।
बाल सनेही साइयाँ, आदि अन्त का यार ।।
सुन्न ध्यान सबके मन माना ।
तुम बैठो आतम असथाना ।।
गगन मंडल के बीच में, तहँवा झलके नूर ।
निगुरा महल न पावई, पहुँचेगा गुरु पूर ।।’
-सन्त कबीर साहब
‘गगनंतरि गगन गवन करि फिरै।
जाय त्रिवेणी मजनू करै।।
गगनि निवासि आसणु जिसु होई।
नानक कहै उदासी सोई।।
भ्रम भै मोह न मायाजाल।
सुन्न समाधि प्रभू किरपाल।।’
-गुरु नानक
‘चढ़ै गगन अकाश गरजै द्वार दशम निकासनं ।’
-पलटू साहब
स्रुति ठहरानी रहै अकाशा ।
तिल खिरकी में निशदिन वासा ।।’
-तुलसी साहब
‘न ध्यानं ध्यानमित्याहुर्ध्यानं शून्यगतं मनः ।
तस्य ध्यान प्रसादेन सौख्यं मोक्षं न संशयः ।।’
(ज्ञानसंकलिनी तंत्र)
अर्थात ध्यान को ध्यान नहीं कहते हैं, शून्यगत मन को ही ध्यान कहते हैं। उसी ध्यान की प्रीति के द्वारा ही सुख और मोक्ष लाभ होते हैं, इसमें संदेह नहीं।
मन की विक्षिप्तता के कारण अविलम्ब ही मन और दृष्टि का ठहराव गुरु-निर्देशित स्थान पर नहीं हो पाता है; किन्तु जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ता जाता है, क्रमानुगत वैसे-ही-वैसे मन एवं दृष्टि का अल्प टिकाव आरम्भ हो जाता है; जिसे धारणा कहते हैं। जब इसमें गहराई आती है अर्थात अधिक विलम्ब-पर्यन्त चित्तवृत्ति को ध्येय वस्तु में लगाकर रखने की क्षमता प्राप्त होती है, तो उसे ध्यान कहते हैं। उस समय बाह्य स्थूल विषयों से मन उपराम होकर अन्तः सूक्ष्म विषय का भोक्ता होता है। स्थूल विषयों से मनोवृत्ति के हटने और शून्य में अधिष्ठित होने के कारण ही-‘ध्यानं निर्विषयं मनः’ तथा ‘ध्यानं शून्यगतं मनः’ कहा गया है।
इस भाँति दृष्टियोग-साधना के निरन्तर निदिध्यासन द्वारा साधक की स्थिति स्थूल से सूक्ष्म में हो जाती है और वह विविध अन्तर्ज्योतियों का अवलोकन करता हुआ ‘ओ3म्’ के ज्योतिः स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। अन्तः प्रदर्शित विभिन्न प्रकाशों का वर्णन मण्डलब्राह्मणोपनिषद में इस भाँति किया गया है-
‘आदौ तारकवद् दृश्यते। ततो वज्रदर्पणं। तत उपरिपूर्णचन्द्रमण्डलम्। ततो नवरत्न प्रभामण्डलम्। ततो मध्याह्नार्क मण्डलम्। ततो वह्निशिखामण्डलं क्रमाद् दृश्यते। तदा पश्चिमाभिमुख प्रकाशः स्फटिक धूम्रविन्दुनादकलानक्षत्रखद्योतदीपनेत्रसुवर्ण- नवरत्नादि प्रभा दृश्यन्ते। तदेव प्रणवस्वरूपम्।’
अर्थात आरम्भ में तारा-सा दीखता है। तब हीरा के ऐना की तरह दीखता है। उसके बाद पूर्ण चन्द्रमण्डल दिखाई देता है। उसके पश्चात नौरत्नों का प्रभामण्डल दिखाई देता है। उसके बाद दोपहर का सूर्यमण्डल दिखाई देता है। उसके बाद अग्निशिखा मण्डल दिखाई देता है। ये सब क्रम से दिखाई देते हैं। तब पश्चिम की ओर प्रकाश दिखाई देता है। स्फटिक, धूम्र, विन्दु, नाद, कला, तारा, जुगनू, दीपक, नेत्र, सोना और नवरत्न आदि की प्रभा दिखाई देती है। केवल यही प्रणव का स्वरूप है।
यजुर्वेद, अ0 30, मन्त्र 2 में लिखित गायित्री मन्त्र द्वारा भी हम ज्योतिर्ध्यान की प्रेरणा पाते हैं; यथा-
‘तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।।2।।’
अ0 30 मन्त्र 2, खण्ड 2, पृष्ठ 489
भा0-(सवितुः देवस्य) सर्वोत्पादक सर्वप्रेरक और सबके प्रकाशक प्रभु, परमेश्वर के (वरेण्यम्)सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त करनेवाले एवं सबों से वरण करनेयोग्य, सर्वोत्तम (भर्गः) पापों के भून डालनेवाले तेज का हम (धीमहि) ध्यान करते हैं। (यः) जो (नः) हमारे (धिय:) बुद्धियों, कर्मों और स्तुति-वाणियों को (प्रचोदयात्) उत्तम मार्ग से प्रेरित करे।। शत0 13।6।2।9।।
किन्तु इतने ही में साधना की इतिश्री नहीं हो जाती। अन्तःप्रकाश पाने के पश्चात साधक प्रकृतीय विकृत मण्डल की विविध ध्वनियों का श्रवण करता है। प्रकाश पाने के पश्चात नाद-श्रवण कोई आनुषांगिक वा विचित्र बात नहीं है, यह तो प्राकृतिक वा ईश्वरीय विधान है, जो कि हम नित्य देखते हैं। जैसे बाह्य जगत के गगन मण्डल में काले-काले बादल मँडराते हैं, बिजलियाँ कौंधती हैं और तब कड़के की आवाज सुनते हैं। ठीक इसी भाँति साधना - काल में साधक के अन्तराकाश में घनघोर श्याम घटा की प्रत्यक्षता होती है, विद्युत् चमकती है और फिर ध्वनि सुनाई पड़ती है। सन्त बुल्ला साहब कहते हैं-
‘श्याम घटा घन घेरि चहूँ दिशि आइया ।
अनहद बाजे घोर जो गगन सुनाइया ।।
दामिनी दमकि जो चमकि त्रिवेणी न्हाइया ।
बुल्ला हृदय विचारि तहाँ मन लाइया ।।’
और सन्त कबीर साहब की वाणी में हम कह सकेंगे-
‘गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै।’ आदि।
ऋग्वेद सूक्त 41 मण्डल 9 के तीसरे मन्त्र में भी लिखा है-
‘शृण्व वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः। चरन्ति विद्युतो दिवि।’
अर्थात आकाश में बिजलियाँ चमकती हैं और उस समय वृष्टि के शब्द के समान बलवान पापशोधक शब्द सुन पड़ता है। साधक के मूर्धा स्थल में विद्युत की-सी कान्तियाँ व्यापती हैं, अनाहत पटह के समान गर्जन अनायास सुनता है। वह स्वच्छ पवित्र आत्मा का ही शब्द होता है।
इसी हेतु सन्तों ने भी सूक्ष्म ध्यान वा शून्य ध्यान में प्राप्त प्रकाश-विन्दु का अवलम्बन ग्रहण करने के पश्चात नादानुसन्धान अभ्यास करने का आदेश दिया है। संतों ने विन्दु को तिल, तारा, मणि, मोती आदि की भी संज्ञा दी है; उनकी वाणियों में हमें निम्नलिखित वाक्य मिलते हैं-
‘बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।’
-ध्यानविन्दूपनिषद
प्रथमहिं सुरत जमावै तिल पर, मूलमंत्र गहि लावै।
गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै ।।’
‘मेरी नजर में मोती आया है .... .... ।।’
-कबीर साहब
‘सुखमन के घर राग सुन सुन मंडल लिवलाइ.... ।’
-गुरु नानक
‘विन्दु में तहँ नाद बोलै, रैन दिवस सुहावनं.... ।’
-पलटू साहब
उलटि देखो घट में ज्योति पसार ।
बिन बाजै तहँ धुनि सब होवै,
विगसि कमल कचनार ।।’
-गुलाल साहब
‘गगन द्वार दीसै एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा ।।’
-तुलसी साहब
नादविन्दूपनिषद के प्रणेता ऋषि ने बतलाया है कि साधक सिद्धासन में स्थित होकर वैष्णवी मुद्रा (दृष्टियोग) का अभ्यास करते हुए दाहिने कान से सर्वदा अन्तर्नाद सुने।
‘सिद्धासने स्थितो योगी मुद्रां सन्धाय वैष्णवीम् ।
शृणुयाद्दक्षिणे कर्णे नादमन्तर्गत सदा ।।31।।
‘मद्ध मुरली मधुर बाजै, बायें किंगरी सारंगी ।
दहिने जो घण्टा शंख बाजै, गैब धुन झनकार की ।।’
-जगजीवन साहब
‘सुरत खैंच तक तिल का द्वार।
दहिनी दिशा शब्द की धार ।।
बाईं दिशा काल का जार।
ताहि छोड़कर सुरत सम्हार ।।’
-राधास्वामी साहब
साधनारम्भ में साधक भारी-भारी ध्वनियों को सुनता है। अभ्यास के बढ़ जाने पर ये ध्वनियाँ क्रमशः अधिकाधिक बारीक सुनाई पड़ती हैं। आरम्भ में नाद समुद्र, बादल, दुन्दुभि, जलप्रपात से निकले हुए जैसे मालूम होते हैं और मध्य में मर्दल, घण्टा और सिंघा जैसे तथा अन्तिम अवस्था में किंकिणी (मजीरा) , मुरली, वीणा और मधुमक्खियों की भनभनाहट जैसे। इस प्रकार वह अनेक बारीक-से-बारीक नादों को सुनता है।
‘श्रूयते प्रथमाभ्यासे नादो नाना विधो महान ।
वर्धमाने तथाभ्यासे श्रूयते सूक्ष्म सूक्ष्मतः ।।33।।
आदौ जलधि जीमूत भेरी निर्झर संभवः ।
मध्ये मर्दल शब्दाभो घण्टा काहलजस्तथा ।।34।।
अन्ते तु किंकिणी वंश वीणा भ्रमर निःस्वनः ।
इति नाना विधा नादाः श्रूयन्ते सूक्ष्म सूक्ष्मतः ।।35।।
-नादविन्दूपनिषद
इस प्रकार नादानुसन्धान की साधना करते हुए त्याज्य और ग्राह्य शब्दों को गुरु-निर्देशानुकूल यथाविधि त्याग-ग्रहण करते हुए अन्त में साधक उस ‘ओ3म्’ प्रणव-ध्वनि को प्रत्यक्ष पाता है, जिसमें जड़ात्मक मण्डल की करोड़ों ध्वनियाँ, विभिन्न नदियों के समुद्र में विलीयमान होने की भाँति विलीन हो जाती हैं।
‘नाद कोटि सहस्राणि विन्दुकोटि शतानि च ।
सर्वे तत्र लयं यान्ति ब्रह्म प्रणवनादके ।।’
-नादविन्दूपनिषद
‘सकल नाम जब एक समाना।
तबहीं साध परमपद जाना ।’
-कबीर साहब
‘शब्द सिन्ध में जाय सिरानी।
अगम द्वार खिड़की नियरानी ।’
-तुलसी साहब
‘ओ3म्’ ध्वनि को प्राप्त कर साधक कैवल्य दशा को पाता है। इस अवस्था में उसे परम प्रभु परमात्मा की प्रत्यक्षता होती है; किन्तु जीवात्मा और परमात्मा में आईने की भाँति झीना आवरण रह जाता है। गो0 तुलसीदासजी ने इस अवस्था को ‘अति दुर्लभ कैवल्य परमपद’ और ‘सोऽहमस्मि इति वृत्ति अखंडा’ कहा है। यद्यपि यह तुरीयावस्था का शिखर है, फिर भी यहाँ द्वैत भाव रहता है।
योग का अन्तिम अंग समाधि है। इस अवस्था में साधक समाधि का भी लाभ करता है। समाधि के दो भेद हैं-सम्प्रज्ञात समाधि और असम्प्रज्ञात समाधि। जब अहंकार वृत्ति निरुद्ध होकर केवल ब्रह्माकार में चित्त की वृत्ति होकर रहती है, इसको सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं और जब वृत्तियाँ प्रशांत हो जाती हैं, उन अवस्था को असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं।
ब्रह्माकार मनोवृत्ति प्रवाहो अहंकृति विना ।
सम्प्रज्ञात समाधि: स्याद्ध्यानाभ्यास प्रकर्षतः ।।53।।
प्रशांत वृत्तिकं चित्तं परमानन्ददायकं ।
असम्प्रज्ञातनामायं समाधिर्योगिनां प्रियः ।।54।।
-मुक्तिकोपनिषद
पुनः यह भी समाधि की ही अवस्था है, जिसमें ज्योति, मन तथा बुद्धि-रहित होकर केवल चैतन्य आत्मा ही रहती है। यह अतद्व्यावृत्ति (जिसको किसी दूसरे की आवश्यकता न हो) समाधिस्थ मुनियों से अभिलषित है। (इस समाधि में) ऊपर, नीचे और मध्य सर्वत्र कल्याणकारी ब्रह्म की परिपूर्णता की अनुभूति होती है। विधिमुख (कथित) यह पारमार्थिक समाधि है। इस अवस्था को प्राप्त कर उपनिषद-वाक्यानुकूल साधक के हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और उसके सभी (शुभाशुभ) कर्म नष्ट हो जाते हैं।
‘भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।’
-महोपनिषद, अ0 4
अन्त में, जब ॐकार ध्वनि भी ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में जाकर विलीन हो जाती है, तब चेतन आत्मा शुद्ध आत्मतत्त्व वा परमात्म-स्वरूप में प्रतिष्ठित होकर तदाकार हो जाती है।
‘यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नाम रूपे विहाय।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।8।।
-मुण्डकोपनिषद
अर्थात जिस प्रकार निरन्तर बहती हुई नदियाँ अपने नामरूप को त्यागकर समुद्र में अस्त हो जाती हैं, उसी प्रकार विद्वान नाम-रूप से मुक्त होकर परस्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है।
इस प्रकार दृश्यादृश्य का परित्याग कर तुरीयातीतावस्था को प्राप्त कर साधक देशकालातीत, द्वैत-विहीन और त्रिपुटीहीन हो ब्रह्मवित् ही नहीं, अपितु स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।
‘दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवल रूपतः।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित् स्वयम्।।’
-मुक्तिकोपनिषद
गो0 तुलसीदासजी ने इसको इस भाँति समझाया है-
सकल दृश्य निज उदर मेलि सोवइ निद्रा तजि योगी।
सोइ हरिपद अनुभवइ परमसुख अतिशय द्वैत वियोगी।।
शोक मोह भय हरष दिवस निशि देश काल तहँ नाहीं।
तुलसिदास यहि दशाहीन संशय निर्मूल न जाहीं।।’
इस तरह उस साधक की स्थिति ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ वाली हो जाती है। वह आवागमन के चक्र से छूटकर सदा का मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
धर्मानुरागी सज्जनो एवं धर्मानुरागिनी देवियो!
भारत एक ऐसा देश है, जहाँ की संस्कृति ऐसी है कि यहाँ के निवासी अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर कुछ-न-कुछ उपासना नित्य नियमित रूप से अवश्य किया करते हैं। उपासनाओं में शिव-शक्ति, विष्णु-लक्ष्मी, राम, कृष्ण, सूर्य, गणपति आदि इष्ट प्रसिद्ध हैं। इन सब इष्टों के स्थूल रूप में यद्यपि भिन्नता का बोध होता है, तथापि सबकी आत्मा अभिन्न है।
रूप का आरम्भ एक विन्दु से होता है और नाम का आरम्भ नाद से। इसलिये यह बात बड़ी सरलता से समझी जा सकती है कि समस्त नाम-रूपों का जनक नाद और विन्दु है। इस दृष्टि को अपनाये रखकर सूक्ष्म विचार करने पर विन्दु और नाद की उपासना में सबकी उपासना सुनिष्पन्न हो जाती है। यही कारण है कि योगशिखोपनिषद के प्रथम अध्याय में विन्दु और नाद को शिव-शक्ति; और पंचम अध्याय में विष्णु-लक्ष्मी कहकर उपासना करने का उल्लेख किया गया है; यथा-
‘विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्ति निकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।’
अर्थात विन्दु-नाद महालिंग है और शिव-शक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
‘विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मी निकेतनम् ।
देहं विष्णवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।’
अर्थात विन्दु-नाद रूप जो महालिंग है, वही विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को ठाकुरबाड़ी कहते हैं, सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
विन्दु को ही गीता 8/9 में ‘अणोरणीयाम्’ कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने ध्यान करने का आदेश दिया है और मनु0 अ0 12 श्लोक 122 में भी परमात्मा के अणु-से-अणु स्वरूप के ध्यान करने की आज्ञा है। विन्दु और नाद के सम्बन्ध में वायवीय संहिता में और भी अधिक स्पष्ट कहा है-
‘आसीद्विन्दुस्ततो नादो नादाच्छक्ति समुद्भवः ।
नादरूपा महेशानि चिद्रूपा परमा कला ।।’
-वायवीय संहिता
अर्थात पहले विन्दु तब नाद, और नाद से शक्ति उत्पन्न होती है। चैतन्य-रूपा परमा कला महेशानी (शिवा) नाद-रूपा है। ध्यानविन्दूपनिषद में एक मन्त्र आया है-
‘बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।।’
अर्थात परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अविनाशी ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
इस मंत्र के माध्यम से ऋषि ने नादानुसन्धान की विधि का स्पष्टीकरण किया है। उन्होंने बताया है कि विन्दु पर नाद अवस्थित है अर्थात साधक प्रथम विन्दु ग्रहण करे, पश्चात नाद और यह नाद जहाँ विलय होगा, वह परम पद वा परमात्म-पद है। एतदर्थ ऐसी सद्युक्ति की आवश्यकता है, जिसके द्वारा प्रथम विन्दु-ग्रहण हो और विन्दु-ग्रहण होते ही स्वाभाविक नादानुभूति भी हो।
कहने की आवश्यकता नहीं कि मन से विन्दु की कल्पना नहीं की जा सकती; क्योंकि उसमें लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई आदि कुछ नहीं होती; किन्तु इतना कहा जा सकता है कि परिमाण-रहित होने पर भी उसका स्थान है और उसकी स्थिति भी। रेखा विन्दुमयी होती है और दो रेखाओं की संधि एक विन्दु पर होती है। पेंसिल वा लेखनी की नोंक जहाँ पड़ती है, वहाँ एक चिह्न उत्पन्न होता है, जिसको विन्दु की संज्ञा से अभिहित करते हैं; किन्तु यह कल्पित विन्दु है, यथार्थ नहीं। क्योंकि इसमें कुछ-न-कुछ परिमाण अवश्य होता है। वस्तुतः कल्पित विन्दु यथार्थ विन्दु नहीं हो सकता।
संत सद्गुरु से सद्युक्ति प्राप्त करके उनके द्वारा निर्देशित स्थान पर यौगिक कला से अवलोकन करने पर मन एवं दृष्टि की एकओरता में जो अवलोकित होता है, वह यथार्थ विन्दु है। इसी हेतु ध्यानविन्दूपनिषद के प्रणेता-ऋषि ने उपर्युक्त श्लोक में ‘परम विन्दु’ कहकर सम्बोधित किया है। यह परम विन्दु वह ज्योतिर्मय विन्दु है, जिसका ध्यान तेजोविन्दूपनिषद में परमोत्कृष्ट ध्यान बताया है; यथा-
‘तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम्।’
अर्थात हृदय-स्थित विश्वात्म तेजस् स्वरूप का ध्यान परम ध्यान है।
योगशिखोपनिषद में लिखा है कि विन्दु-पीठ का भेदन करके नाद-लिंग उपस्थित होता है।
‘विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम्।’ (अ0 2)
संतों की वाणियों में भी हम विन्दु-ग्रहण के पश्चात ही नाद-श्रवण की विधि का उल्लेख पाते हैं; जैसे-
‘स्रुति ठहरानी रहे अकासा।
तिल खिड़की में निसदिन वासा।।
गगन द्वार दीसै एक तारा।
अनहद नाद सुनै झनकारा।।’
-तुलसी साहब, हाथरस
सन्त तुलसी साहब ने ज्योतिर्मय विन्दु को यहाँ ‘तिल’ कहकर संकेत किया है। संत कबीर साहब ने भी ‘विन्दु’ को ‘तिल’ शब्द से सम्बोधित किया है और कहा है कि जो कोई पहले विन्दु वा तिल पर सुरत स्थिर कर पाता है, वह विद्युत्प्रभा-सह मेघगर्जन-अनहद नाद भी सुन पाता है।
प्रथमे सुरति जमावे तिल पर, मूल मन्त्र गहि लावै।
गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै।।’
(कबीर साहब)
गुरु नानकदेवजी ने बताया है कि अपनी चेतनवृत्ति को इड़ा-पिंगला से हटा, सुषुम्ना में लाकर नाद-श्रवण वा नादानुसंधान का अभ्यास करे; यथा-
‘सुखमन के घर राग सुनि, सुन मण्डल लिव लाइ।
अकथ कथा बीचारीअै, मनसा मनहिं समाइ।’
संत पलटू साहब की वाणी में हम पाते हैं-
‘विन्दु में तहँ नाद बोलै, रैन दिवस सुहावनं।।’
संत राधास्वामी साहब ने भी ‘विन्दु’ को ‘तिल’ शब्द से अभिहित किया है और उसकी प्राप्ति का निर्देशन उन्होंने सुषुम्ना में किया है-
‘सुरत शब्द एक अंग कर, देखो विमल बहार ।
मध्य सुखमना तिल बसे, तिल में जोत अकार ।।’
पुनः उन्होंने सुरत को तिल द्वार तक खींच कर ले जाने और वहाँ दाहिनी ओर की शब्द-धार को ग्रहण करने का आदेश दिया है-
‘सुरत खैंच तक तिल का द्वार ।
दहिनी दिशा शब्द की धार ।’
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की अनुभूतिपूर्ण वाणी में हम कह सकेंगे-
‘तिल द्वार तक के सीधे, सूरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन-सुन, चढ़-चढ़ के खोजना ।।’
ज्योतिर्विन्दु-ग्रहण वा तिल-धारण अथवा सुषुम्ना में अपनी सुरत-वृत्ति की स्थिति के लिए दृष्टि-साधन की क्रिया करनी पड़ती है, जिसके तीन भेद हैं- अमादृष्टि, प्रतिपदा दृष्टि और पूर्णिमा दृष्टि। आँख बंद करके देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा दृष्टि है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा दृष्टि है। उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिये। पुनः यह कह देना आवश्यक है कि दृष्टि की इन तीनों विधियों में अमादृष्टि की साधना सरल, सुखद, आपदाहीन और प्राचीन है।
अमादृष्टि से ध्यानाभ्यास करने का अर्थ है- निमीलित नेत्र से ध्यान करना। इस तरह आँख बन्द कर ध्यान करने से अमानिशीथ की तमिस्रा साधक के सम्मुख उपस्थित हो जाती है। अपनी वृत्ति को इस अमावस्या के श्याम गगन में रखने पर उसके मन पर कोई नया संस्कार नहीं पड़ता। इसका हेतु यह है कि आँख बन्द रहने पर कोई भी जागतिक दृश्य गोचर नहीं होता। जागतिक दृश्य के अभाव में तत्सम्बन्धी भाव मन में उत्पन्न नहीं होता और मन की चंचलता छूटती है। इस प्रकार साधक गुरु-निर्देशित स्थान पर क्रिया-विशेष द्वारा अपने मन और दृष्टि को स्थिर कर अपने पुराने अशुभ संस्कारों का शमन करने में सक्षम होता है।
भक्तवर श्रद्धेय जयदयालजी गोयन्दका ने दृष्टि साधन और नादानुसंधान पर कितना सुन्दर और स्पष्ट प्रकाश डाला है-
‘दृष्टि जमाने का और आँख मूँदकर ध्यान करने का परिणाम तो मन की स्थिरता और शुद्ध , बुरे संकल्पों का नाश और शांति इत्यादि हुआ करते हैं....। कान बंद करके अंदर की आवाज में भगवान के नाम की ध्वनि सुनने का साधन भी बड़ा उत्तम है। इसमें हानि की कोई बात नहीं है। दूसरे साधनों के साथ इसे भी किया जा सकता है। यह साधन रात्रि में और भी सुगमता से किया जा सकता है; क्योंकि इस समय हल्ला-गुल्ला कम होकर शान्त वातावरण हो जाता है।’ (कल्याण, वर्ष 30, अंक 9, पृष्ठ 1168)
नादानुसन्धान की विशेष विधि तथा तज्जनित लाभ के विशेष बोधार्थ नादविन्दूपनिषद के निम्न अवतरण पठनीय हैं-
‘सिद्धासने स्थितो योगी मुद्रां संधाय वैष्णवीम्।
शृणुयाद्दक्षिणे कर्णे नादमन्तर्गतं सदा।।
सिद्धासन में स्थित होकर वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास करते हुए, योगी* दाहिने कान से आन्तरिक नाद सर्वदा सुने।
* [तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक: ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ ४६ ॥ (गीता 6/46)]
‘मकरन्दं पिबन्भृंगो गंधान्नापेक्षते यथा।
नादासक्तं सदा चित्तं विषयं न हि कांक्षति।
बद्ध: सुनाद गन्धेन सद्यः संत्यक्त चापलः।।’
जिस प्रकार मधुमक्खी मधु को पीती हुई उसकी सुगन्ध की चिन्ता नहीं करती है, उसी प्रकार चित्त जो सदा नाद में लीन रहता है, विषय चाहना नहीं करता है; क्योंकि वह नाद की मिठास में वशीभूत है तथा अपनी चंचल प्रकृति को त्याग चुका है।
‘नाद ग्रहणतश्चित्तमन्तरंग भुजंगमः।
विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्रचिन्नहि धावति।।’
नाग-रूप चित्त नाद का अभ्यास करते-करते पूर्ण रूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूल कर नाद में अपने को एकाग्र करता है।
‘मनोमत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।।’
नाद मदान्ध हाथी-रूप चित्त को, जो विषयों की आनन्द-वाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है।
‘नादोऽन्तरंग सारंग बंधने वागुरायते।
अन्तरंग समुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा।।’
मृग रूपी चित्त को बाँधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है। समुद्र-तरंग-रूपी चित्त के लिए (नाद) तट का काम करता है।
‘तावदाकाश संकल्पो यावच्छब्दः प्रवर्त्तते।
निःशब्दं तत्परं ब्रह्म परमात्मा समीयते।।’
जबतक आकाश संकल्प है, तबतक नाद की स्थिति रहती है, उसके परे अशब्द परब्रह्म परमात्मा है।
सर्वेश्वर के पाने का स्वयंसिद्ध साधन विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान है। यह मार्ग सबके लिए सरल, सुखद और सर्वथा संकट-शून्य है। त्रयताप-तापित जन को संसृति-संताप से निस्तार पाने के लिए इसका नित्य अभ्यास करना चाहिये।
धर्मानुरागी सज्जनो एवं धर्मानुरागिनी देवियो!
ये ज्योति और नाद क्या हैं? जैसे कोई माता-पिता अपने दोनों हाथों को ‘फैलाकर अपनी सन्तान को गोद में बिठा ले, उसी प्रकार प्रभु की ये उभय विभूतियाँ (अन्तर्ज्योति और अन्तर्नाद) उनके उभय हस्तवत् हैं, जिनके द्वारा वे स्वभक्तों को स्वरूप में प्रतिष्ठित कराकर अभय प्रदान करते हैं।
इसके सम्बन्ध में शास्त्र का कहना है-
‘आसीद्विन्दुस्ततो नादो नादाच्छक्ति समुद्भवः।
नाद रूपा महेशानि चिद्रूपा परमा कला।।’
(वायवीय संहिता)
अर्थात पहले विन्दु तब नाद और नाद से शक्ति उत्पन्न होती है। चैतन्य-रूपा परमा कला महेशानी (शिवा) नाद-रूपा है।
तथा-
‘न नादेन विना ज्ञानं न नादेन विना शिवः।
नाद रूपं परं ज्योतिर्नाद रूपी परो हरिः।।’
अर्थात नाद के बिना ज्ञान नहीं हो सकता है, नाद के बिना कल्याण नहीं हो सकता है, नाद ही श्रेष्ठ ज्योति-स्वरूप है और नाद रूप ही हरि हैं।
नाद के सम्बन्ध में श्रुति का सिद्धान्त यह है-
‘वागेव विश्वा भुवनानि यज्ञे वाच इत्सर्वममृतं मर्त्यंच।’
अर्थात शब्द से ही विश्व विकसित हुआ। शब्द ही अमृत और मृत्यु-स्वरूप है। और भी,
‘वागेवार्थं पश्यति वाग्ब्रवीति वागेवार्थे सन्निहितं सन्तनोति।
वाचैव विश्व बहुरूपं निबद्धं तदेतदेकं प्रविभज्योपभुंक्ते।।’
अर्थात शब्द के द्वारा ही अर्थ देखते हैं, शब्द को ही बोलते हैं, शब्द में ही मिले हुए अर्थ का विस्तार करते हैं, शब्द के द्वारा ही यह संसार नाना रूपों में बँटा हुआ है, उस बँटे हुए से एक भाग लेकर हमलोग उपभोग करते हैं।
यजुर्वेद में एक मंत्र आया है, जो बताता है कि विश्व की उत्पत्ति ईश्वर की वाणी (शब्द) से हुई है; यथा-
‘ताँ सवितुर्वरेण्यस्य चित्रामाहं वृणे सुमतिं विश्वजन्याम्।
यामस्य कण्वोऽअदुहत्प्रपीनँ् सहस्रधाराम्पयसा महींगाम्।।’
(अ0 17 मं0 74 खण्ड 1) *
* [यह मंत्र ‘वेद-दर्शन-योग’ से लिया गया है और इसके व्याख्याकार हैं- पं0 जयदेव की शर्म्मा, विद्यालंकार मीमांसातीर्थ (आर्य साहित्य मण्डल, लिमिटेड), अजमेर।]
अर्थात सबसे श्रेष्ठ सर्वोत्पादक परमेश्वर की अद्भुत (विश्वजन्या) विश्व को उत्पन्न करनेवाली (सुमतिं) उत्तम ज्ञानवती (गाम्) वाणी को मैं (वृणो) सेवन करूँ। (याम् महीं गाम्) जिस पूजनीय वाणी को सहस्रों धारावाली हृदय-पुष्ट गाय के समान (सहस्र धाराम्) सहस्रों धारा धारण सामर्थ्य या व्यवस्था-नियमों वाली (कण्व अदुहत) ज्ञानी पुरुष दोहन करता है, उससे ज्ञान प्राप्त करता है।
इस विषय पर परम पूज्य सद्गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज द्वारा टिप्पणी इस प्रकार है-‘परमेश्वर की अद्भुत विश्व को उत्पन्न करनेवाली वाणी का मैं सेवन करूँ।’ इसी शब्द वा नाद को ध्यानाभ्यास द्वारा भजने वा ग्रहण करने का आदेश संत लोग करते हैं। ‘साधो शब्द साधना कीजै.......’
श्रीमदाद्य शंकराचार्यजी महाराज को भी यह मान्य है कि शब्द से सृष्टि हुई है, जो उसके अनुसार उपादान कारण है- ‘न चेदं शब्दं प्रभवत्वं ब्रह्म प्रभवत्वं वदुपादान कारण त्वभिप्रायेण।’
अर्थात इस शब्द की उत्पत्ति का ब्रह्म की उत्पत्ति के समान उपादान कारण नहीं है।
और तो और, ईसाई धर्म की मूल पुस्तक जो बाइबिल है, उसमें ईसा के शिष्य जॉन ने भी इस विषय का प्रतिपादन किया है कि आरम्भ में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था; यथा-
"In the beginning was the word, the word was with God, and the word was God."
तथा ब्रह्मज्योति के सम्बन्ध में सन्त ल्यूक ने इस भाँति कहा है-
"The light of the body is the eye, therefore when thine eye is single, thy whole, body also is full of light; but when thine eye is evil, thy body also is full of darkness."
"Take heed therefore that the light which is in thee be not darkness."
"If thy whole body therefore be full of light, having no part dark, the whole shall be full of light, as when the bright shining of a candle doth give thee light."
St. Luke Chapter 11/34-36
शरीर का दीपक आँख है, इसलिये जब तेरी आँख एक हो, तो तेरा सम्पूर्ण शरीर प्रकाशमय होगा; किन्तु जब तेरी आँख बुरी हो, तो तेरा शरीर भी अन्धकारमय होता है।।34।।
इसलिये इसका ध्यान रख कि वह ज्योति (दीपक) जो तुम्हारे अन्दर है, अन्धकारमय न हो।।35।।
इसलिये अगर तेरा सम्पूर्ण शरीर प्रकाश से पूरित हो, उसका कोई अंश भी अन्धकारमय न हो, तो जिस प्रकार तेज जलनेवाली मोमबत्ती तुझे प्रकाश देती है- सम्पूर्ण उजियारा हो जायेगा।।36।।
संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब, दादू दयाल जी, राधास्वामी साहब आदि संतों ने भी सृष्टि के आरम्भ में शब्द का होना, एक स्वर से स्वीकार किया है; यथा-
‘साधो शब्द साधना कीजै।
जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोइ शब्द गहि लीजै।।’
(सन्त कबीर साहब)
‘शब्द तत्तु बीर्य संसार, शब्दु निरालमु अपर अपार।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा, नानक भेदु न शब्द अलेषा।।
शब्दै सुरति भया प्रगासा, सभ को करै शब्द की आसा।
पंथी पंखी सिऊ नित राता, नानक शब्दै शब्दु पछाता।।
हाट बाट शब्द का खेलु, बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु।
सारी स्रिष्टि शब्द कै पाछै, नानक शब्द घटै घटि आछै।।’
-गुरु नानक देव
‘शब्दै बन्ध्या सब रहै, शब्दै सब ही जाइ।
शब्दै ही सब ऊपजै, शब्दै सबै समाइ।।
शब्दै ही सूषिम भया, शब्दै सहज समान।
शब्दै ही निर्गुण मिलै, शब्दै निर्मल ज्ञान।।
एक शब्द सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ।
आगै पीछै तौ करे, जे बलहीणा होइ।।
पंच ऊपना शबद थैं, शबद पंच सों होइ।
साईं मेरे सब किया, बूझै बिरला कोइ।।
-सन्त दादू दयालजी
‘सबका आदि शब्द को जान।
अन्त सभी का शब्द पिछान।।
तीन लोक और चौथा लोक।
शब्द रचे यह सब ही थोक।।’
-राधास्वामी साहब
ज्योति और शब्द के विषय का उल्लेख हम छान्दोग्योपनिषद अ0 3 के त्रयोदश खण्ड में इस भाँति पाते हैं-
अथ यदतः परो दिवोज्योतिर्दीप्यते विश्वतः पृष्ठेषु सर्वतः पृष्ठेष्वनुत्तमेषूत्तमेषु लोकेष्विदं वाव तद्यदिदमस्मिन्नन्तः पुरुषेज्योतिस्तस्यैषा दृष्टिः।।7।।
यत्रै तदस्मिञ्छरीरे सँ् स्पर्शेनोष्णिमानं विजानाति तस्यैषा श्रुतिर्यत्रैत्कर्णावपिगृह्य निनदमिव नदथुरिवाग्नेरिव ज्वलत उपशृणोति तदेतदृष्टं च श्रुतं चेत्युपासीत चक्षुस्यः श्रुतो भवति य एवं वेद य एवं वेद।।8।।
अर्थात जो कि इससे परे स्वर्ग अथवा आकाश में ज्योति चमकती है एवं विश्व की पीठ पर, सबकी पीठ पर तथा उत्तम और अनुत्तम सब लोकों में चमकती है, यह वही है, जो अन्तःपुरुष में ज्योति है। उसी की यह दृष्टि है, जो कि इस शरीर में छूने से गर्मी का ज्ञान करते हैं। उसी की यह श्रुति है जो कि इन कानों को बन्द करके ध्वनि के समान और जलती हुई आग के गर्जन के समान सुनते हैं। इस तरह उसे देखा भी और सुना भी, अतः चक्षुस्य और श्रुत; दोनों से उसकी उपासना करनी चाहिये, जो इसे जानता है।।7-8।।
अतएव कहना पड़ता है कि ज्योति जगत का जीवन तत्त्व है और नाद जगत का आदितत्त्व। बिना नाद के जगत का अस्तित्व नहीं और प्रकाश-हीन का अर्थ तो प्राण-विहीन ही समझना चाहिये। यही कारण है कि जगत को नादात्मक कहते हैं। यदि विराट प्रकाश-पुञ्ज-सूर्य पिण्ड को स्थूलाकाश से हटा लिया जाय, तो सौर जगत को ठहरने का कहीं ठौर नहीं। अतएव स्वतः सिद्ध है कि ये उभय-ज्योति और शब्द, मानव मात्र के ही नहीं, वरन प्राणिमात्र के प्राण हैं।
जहाँ ज्योति और नाद नहीं, वहाँ जीव का जीवन नहीं- अस्तित्व नहीं। यह तो प्रत्यक्ष ही है कि जिस सद्यःजात शिशु की आँख में तेज नहीं और भूमिष्ठ होते ही जो शिशु क्रन्दन प्रसारित कर हमें शब्द का बोध नहीं दिलाता, उस शिशु को शव जान कर सब त्याग देते हैं।
अन्य प्राणियों के प्रसंग का परित्याग कर हम अपनी ओर दृष्टिपात करें। जबतक हमारे शरीर में उष्णता वा गर्मी रहती है, तबतक शरीर का जीवन रहता है और उष्णता की इतिश्री में देह का भी अवसान हो जाता है। हमारी रुग्णावस्था में डॉक्टर वा वैद्य आते हैं। वे क्या देखते हैं? तापमापक यन्त्र (Thermometer) लगाकर हमारे शरीर के ताप की ही तो माप करते हैं और नाड़ी स्पर्श कर नाड़ी की गति, कम्पन वा स्पन्दन ही तो देखते हैं? साथ वक्ष-परीक्षण यन्त्र (Stethoscope) द्वारा हमारे हृदय की धडकन, ध्वनि वा शब्द ही को तो सुनते हैं।
जबतक नाड़ी की गति ठीक रही, हृदय का कम्पन ठीक रहा और शरीर में गर्मी रही, तबतक तो ठीक ही ठीक; अन्यथा इनके अभाव में शरीर के जीवन का भी तिरोभाव हो जाता है। इस दृष्टि से विचार करने पर सरलतापूर्वक समझा जा सकता है कि ज्योति और शब्द क्या हैं तथा ये हमारे कितने काम की चीजें हैं।
ज्योति प्रकाश है, उसमें उष्णता रहती है तथा नाद शब्द है, उसमें गति होती है। दूसरी भाँति से हम ऐसा भी कह सकते हैं-जहाँ कम्प है, वहाँ शब्द है; बिना कम्प के शब्द नहीं। सन्त दरिया साहब (बिहारी) कहते हैं-
‘सन्तो गति में अनहद बाजै।
झंझकार और झनक-झनक है, यहि मन्दिर में साजै।।’
किन्तु यह कोई आवश्यक नहीं कि सृष्टि में जितने प्रकार के शब्द होते हैं, उन सभी शब्दों का ज्ञान सरलतापूर्वक स्वाभाविक रीति से हमें हो अर्थात हम सभी शब्दों को सुन सकें; क्योंकि हमारी कर्णेन्द्रिय में जो शक्ति है, वह उतनी क्षमता नहीं रखती, जो समस्त शब्दों को ग्रहण कर सके। आज के भौतिक वैज्ञानिकों ने परीक्षण कर इसकी शक्ति-सीमा को सीमित सिद्ध कर दिया है। अर्थात उन्होंने बताया है कि प्रति सेकेण्ड न्यूनतम तीस और उच्चतम तीस हजार फ्रीक्वेन्सी (Frequency-आवृत्ति संख्या) के शब्द को लोग सुन सकते हैं। कोई-कोई चालीस हजार Frequency के शब्द को सुन सकते हैं।
माननीय डॉक्टर सम्पूर्णानन्द महोदय (भूतपूर्व राज्यपाल, राजस्थान) के कथनानुसार- ‘हमारी नाड़ी संस्थान की बनावट ऐसी है कि यदि वस्तु का कम्पन लगभग सोलह बार प्रति सेकण्ड से कम या लगभग पचास हजार प्रति सेकेण्ड से अधिक हो तो स्वन* नहीं सुन पड़ता।’ (योग दर्शन)
*[ जो कान से सुना जाय।–लेखक ]
यह कहना कोई अनर्गल बात नहीं होगी कि स्थूल भौतिक जगत के शब्दों को ही हम Frequency में विभाजित कर सकते हैं, न कि सूक्ष्म वा कारणादि सृष्टि के अनहद वा अनाहत शब्दों को; क्योंकि इन आन्तरिक नादों के श्रवण के लिए न तो यह स्थूल कर्ण योग्य है और न कोई अन्य बाह्य उपकरण ही।
श्रोत्र में स्वल्प शक्ति होने के कारण हम जिन शब्दों को नहीं सुन सकें, उन शब्दों का अस्तित्व है ही नहीं, ऐसा कहना न्यायसंगत नहीं; क्योंकि आकाश में जब हम वायुयान को उड़ते देखते हैं, तो उस समय जोरों की आवाज सुनाई पड़ती है; किन्तु अत्यधिक दूर होने के कारण हमारी श्रवणेन्द्रिय उस शब्द को धारण नहीं कर पाती। फिर ज्यों-ज्यों वह समीप आता है, त्यों-त्यों उसका शब्द अधिकाधिक स्पष्ट होता जाता है और अत्यन्त निकट आ जाने पर उसका घोर शब्द सुन पड़ता है। पुनः जबतक श्रवणशक्ति की सीमा के अन्दर वायुयान उड़ता रहता है, हम शब्द सुनते रहते हैं और सीमोल्लंघन के पश्चात उसी शब्द को नहीं सुन पाते। तो क्या, ऐसा कहना न्याय-संगत होगा कि वायुयान के सुदूर होने पर उसकी गति में शब्द नहीं होता? ऐसा कदापि नहीं कहा जा सकता।
स्थूल-सूक्ष्म भेद से सृष्टि के जितने स्तर हो सकते हैं, सबमें अनिवार्य रूप से शब्द होता है। चन्द्र, सूर्य, तारे प्रभृति जितने ग्रह एवं नक्षत्र हैं, सबमें अपनी-अपनी गति है और सबसे शब्द होते हैं। सम्प्रति जिस पृथ्वी पर हमलोग निवास करते हैं, इस पृथ्वी की गति में भी शब्द होता है; किन्तु क्या हम उसे सुन पाते हैं?
ईसा से छह सौ वर्ष पूर्व ईटली में पाइथागोरस (Pythagoras) नाम के एक महात्मा हुए थे। वे इस शब्द को सुनते थे। शब्दब्रह्म के वे इतने अच्छे अभ्यासी थे कि उनको सृष्टि के मण्डलों की गति का संगीत (Music of the Spheres) निरन्तर सुनाई पड़ता था।
ज्योति और नाद से हमारे जीवन का आश्चर्यजनक सम्बन्ध है। शब्द के द्वारा ही हम लौकिक तथा पारलौकिक ज्ञान पाते हैं। बिना शब्द के हमारा उभय लोक सूना-सूना रहता है। यदि हम थोड़ा भी विचार कर सकें, तो पायेंगे कि जिनके अन्दर शब्द का जितना बड़ा कोष है, वे उतने ही बड़े ज्ञानी हैं। परमार्थ तो परे की वस्तु है। प्रथम हम अपने जागतिक जीवन पर ही दृष्टिपात करें। क्या हम जगत-व्यवहार में, बिना प्रकाश व नाद के किसी व्यक्ति अथवा वस्तु की पहचान कर सकते हैं? कभी नहीं। यह तो स्पष्ट ही है कि यदि प्रकाश नहीं, तो अन्धकार में टटोलने से आखिर मिल ही क्या सकता है? प्राप्य वस्तु भी तम के कारण अप्राप्य-सी हो जाती है।
मान लीजिये, दिन का समय हो, सहस्रों की संख्या में लोग उपस्थित हों; किन्तु उस समय यदि सूर्य का प्रकाश नहीं हो अथवा अन्य किसी प्रकार का प्रकाश नहीं हो, तो क्या उस प्रकाश के अभाव में कोई किन्हीं को देख सकते हैं? और बिना देखे कोई किन्हीं की पहचान कर सकते हैं? कदापि नहीं। तात्पर्य क्या हुआ? प्रकाश है, तो पहचान है, प्रकाश नहीं, तो पहचान नहीं। हाँ, एक बात और है-प्रकाश के अभाव में भी पहचान वा परिचय प्राप्त करने का एक माध्यम है। और वह है-शब्द।
मान लीजिये, सज्जनों की भरी सभा हो; किन्तु वहाँ घनघोर तम का साम्राज्य छाया हुआ हो और सभी चुपचाप-निःशब्द बैठे हों, तो ऐसी अवस्था में कुछ भी पता नहीं चल सकता कि कौन कहाँ बैठे हुए हैं? परन्तु यदि क्रम-क्रम से एक-एक सज्जन बोलना आरम्भ कर दें, तो उनकी वाणी सुनकर हम पूर्व परिचित जन को सरलतापूर्वक पहचान लेंगे-तनिक भी व्यतिक्रम नहीं होगा। किन्तु स्मरण रहे, जिससे हमारा पूर्व परिचय नहीं, उनकी वाणी सुनकर भी हम उनको नहीं पहचान सकते। आशय यह हुआ कि प्रथम प्रकाश की सहायता से हम जिनको प्रत्यक्षता प्राप्त कर सकते हैं, प्रकाश के अभाव में भी मात्र शब्द की सहायता से उनकी हम पहचान कर सकते हैं।
इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो गया कि किन्हीं के साक्षात्कार वा उनकी पहचान के लिए प्रकाश और शब्द आश्चर्यजनक माध्यम है। ठीक इसी भाँति परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति के लिए सन्त तथा वेदानुमोदित अन्तःप्रकाश और अन्तर्नाद की साधना है।
कहने की आवश्यकता नहीं, अन्तःप्रकाश पाने के लिए दृष्टि-योग (वैष्णवी मुद्रा/शाम्भवी मुद्रा) की और अन्तर्नाद को अनुभूति के लिए नादयोग वा नादानुसन्धान की क्रिया अत्यन्त अपेक्षित है। हाँ, अब प्रश्न हो सकता है अथवा जिज्ञासा हो सकती है कि अन्तःप्रकाश और अन्तर्नाद पाने का यथानुक्रम साधना क्या है?
इस विषय में सभी का मतैक्य नहीं, दो मत हैं। एक पक्ष का कथन है कि नादानुसन्धान करते-करते अन्तःप्रकाश मिलता है और दूसरे पक्ष का कथन है कि अन्तःप्रकाश पाने पर कम-से-कम ज्योतिर्विन्दु ग्रहण के पश्चात ही नादानुसन्धान करना चाहिये। यद्यपि दोनों के वचन अपनी-अपनी जगह ठीक हैं, तथापि प्रथम पक्ष से द्वितीय पक्ष के विचार अधिक दृढ़ और प्रमाणभूत पाये जाते हैं; क्योंकि इनकी विचारधारा के समर्थन में सद्ग्रन्थों से आप्त वचन पर्याप्त रूप में प्राप्त होते हैं; यथा-
‘विन्दुपीठं विर्निभिद्य नादलिंगमुपस्थितम्।’
-योगशिखोपनिषद
अर्थात विन्दु-पीठ का भेदन करके नाद-लिंग उपस्थित होता है-
‘सिद्धासने स्थितो योगी मुद्रां सन्धाय वैष्णवीम्।
शृणुयाद्दक्षिणे कर्णे नादमन्तर्गतं सदा।।’
-नादविन्दूपनिषद
अर्थात सिद्धासन में स्थित होकर वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास करते हुए योगी दाहिने कान से आन्तरिक नाद सर्वदा सुने।
‘बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।।’
-ध्यानविन्दूपनिषद
अर्थात परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर ब्रह्म में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
‘कबीर कमल प्रकासिया, ऊगा निर्मल सूर।
रैन अँधेरी मिटि गई, बाजै अनहद तूर।।’
-कबीर साहब
‘सुखमन के घर राग सुन, सुन मंडल लिव लाइ।
अकथ कथा बीचारिअै, मनसा मनहिं समाइ।।’
-गुरु नानक साहब
‘विन्दु में तहँ नाद बोलै, रैन दिवस सुहावनं।।’
-पलटू साहब
‘गगन द्वार दीसै एक तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा।।’
-तुलसी साहब, हाथरस
आर्ष वचन विश्वास के योग्य तो होते ही हैं, साथ ही विचार-विमर्श करने पर निष्कर्ष भी यही निकलता है कि अन्तर्ज्योति वा ब्रह्मज्योति प्राप्त करने के लिए दृष्टियोग की और शब्दब्रह्म के साक्षात्कार के लिए नाद-योग वा नाद- साधना की क्रिया अपरिहार्य है। इन उभय साधनाओं में क्रिया का आरम्भ होगा दृष्टियोग से और अन्त होगा नादयोग में; जो सबके लिए सरल, सुखद और सुगम साधन है। दृष्टि साधन में सफलता प्राप्त किये बिना नादानुसन्धान करना वैसा ही है, जैसे नेत्रविहीन का ऊँचे वृक्ष से फल तोड़ना।
श्री भर्तृहरिजी ने-
इति कर्त्तव्यता लोके सर्वा शब्द व्यपाश्रया।
यां पूर्व हित संस्कारो बालोऽपि प्रतिपद्यते।।’
के द्वारा सद्यःजात शिशु के क्रन्दन की उपमा देकर नाद की नित्यता बतलायी है। किन्तु इसके साथ इससे भिन्न दूसरी उपमा भी ली जा सकती है। और वह यह कि प्रथम हम शिशु को देखते हैं, पश्चात शब्द सुनते हैं। जबतक शिशु देखा नहीं जाता, तबतक उसकी बोली सुनी नहीं जाती। इस दृष्टि से भी पहले देखने की क्रिया ‘दृष्टियोग’ और पीछे सुनने की क्रिया ‘नादानुसन्धान’ का स्पष्ट संकेत मिलता है।
हम एक बात पर और भी जरा ध्यान दें, जो कि नित्य हमें प्रकृति देवी सिखलाती है। आकाश में काले-काले बादल मँड़राते हैं। बिजलियाँ चमकती हैं और तब ठनके की आवाज सुन पड़ती है। जबतक विद्युत् नहीं चमकती, तबतक मेघ-गर्जन नहीं होता। अतएव यह भी उसी विषय की परिपुष्टि करता है कि पहले देखो, फिर सुनो।
ऐसा लगता है, मानो ऋग्वेद सू0 41 मं0 9 के तृतीय मन्त्र में ऋषि ने इसी ओर इंगित किया हो।
‘शृण्व वृष्टेरिव स्वनः पवनमानस्य शुष्मिनः।
चरन्ति विद्युतो दिवि।।’
अर्थात आकाश में बिजलियाँ चमकती हैं और उस समय उस बलवान पापशोधक का शब्द वृष्टि के शब्द के समान सुन पड़ता है। साधक के मूर्धा-स्थल में विद्युत् की-सी कान्तियाँ व्यापती हैं। वह अनाहत पटल के समान गर्जन अनायास सुनता है। वह स्वच्छ पवित्र आत्मा का ही शब्द होता है।
उपनिषदों तथा सन्तों की वाणियों में बिजली की चमक तथा मेघ-गर्जन के यत्र-तत्र विस्तृत वर्णन पाये जाते हैं, जिनकी प्रत्यक्षानुभूति अन्तस्साधना करते समय साधकों को होती है।
‘आदौ जलधि जीमूत भेरी निर्झर सम्भवः।
मध्ये मर्दल शब्दाभो घण्टा काहलजस्तथा।।’
-नादविन्दूपनिषद
अर्थात आरम्भ में नाद समुद्र, बादल, दुन्दुभि, जलप्रपात से निकले हुए मालूम होते हैं और मध्य में मर्दल, घण्टा और सिंघा जैसे।
योगशिखोपनिषद में लिखा है-
‘आधारचक्रमहसा विद्युत्पुञ्ज समप्रभा।
तदामुक्तिर्न सन्देहो यदि तुष्टः स्वयं गुरुः।।’
अर्थात बिजली-पुञ्ज के समान प्रभावाले आधार चक्र के ज्ञान-प्रकाश से मुक्ति हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं, जबकि गुरु प्रसन्न रहें।
‘गगन गराजै दामिनि दमकै अनहद नाद बजावै।।’
-कबीर साहब
‘निसि दामिनि जिउ चमकि चंदाइणु देखै,
अहि निसि जोति निरन्तर पेखै।
आनन्द रूप अनूपु सरूपा गुरु पूरे देखाइआ।।’
-गुरु नानक साहब
‘गगन गरज घन बरसहीं, बाजै दीरघ नाद।
अमरापुर आसन करै, जिन्हके मते अगाध।।’
-गरीब दासजी
‘जैसे रवि के तेज से, देख पड़े रवि जात।
तैसे आतम तेज से, आतम रूप लखात।।’
सूर्य को देखने के लिए अन्य किसी प्रकाश की आवश्यकता नहीं पड़ती, सूर्य के प्रकाश से ही सूर्य को देख सकते हैं। ठीक उसी भाँति आत्म-ज्योति से ही आत्म-साक्षात्कार होता है। इस विषय का समर्थन सामवेद का निम्न अवतरण भी करता है कि आत्मा से ही आत्मज्ञान और मोक्ष मिलता है तथा तेज के निवास परमात्मा को भी प्राप्त करता है।
‘अभि प्रयांसि वाहसा दाश्वाँ अश्नोति मर्त्यः।
क्षयं पावक शोचिषः।।2।।’
(1557, अ0 15, खं0 3, सू0 9)
अब अन्त में प्रातःस्मरणीय परमपूज्य अनन्त श्री विभूषित सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शब्दों में शब्द-विज्ञान का अनुशीलन कीजिये-
‘परम प्रभु सर्वेश्वर में सृष्टि की मौज वा कम्प हुए बिना सृष्टि नहीं होती। मौज वा कम्प शब्द-सहित अवश्य होता है; क्योंकि शब्द कम्प का सहचर है। कम्प शब्दमय होता है और शब्द कम्पमय होता है। कम्प और शब्द के बिना सृष्टि नहीं हो सकती। कम्प और शब्द सब सृष्टियों में अनिवार्य रूप से अवश्य ही व्यापक है। आदिशब्द सृष्टि का साराधार, सर्वव्यापी और सत्य है। अव्यक्त से व्यक्त हुआ है, अर्थात सूक्ष्मता से स्थूलता हुई है। सूक्ष्म स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है। अतएव आदिशब्द सर्वव्यापक है। इस शब्द में योगीजन रमते हुए परम प्रभु सर्वेश्वर तक पहुँचते हैं। अर्थात इस शब्द के द्वारा परम प्रभु सर्वेश्वर का अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ज्ञान होता है।’
वस्तुतः सृष्टि-सर्जन-हेतु सर्वेश्वर ने सर्वप्रथम शब्द का सर्जन किया। वह शब्द सृष्टि के कण-कण में वैसे ही व्यापक हुआ, जैसे एक मिट्टी की गोली बनाने में अँगुलियों का प्रकम्पन उसमें ओत-प्रोत व्यापक होता है। सन्तों ने स्थूल-सूक्ष्मादि भेद से सृष्टि के पाँच स्तर (स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य वा जड़विहीन चेतन) बतलाये हैं। सूक्ष्म अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है और ऊपर का शब्द नीचे दूर तक जाता है। तथा सृष्टिक्रम के निर्माण में पूर्व का पदार्थ, अपने से पश्चात के पदार्थ की अपेक्षा सूक्ष्म होता है। इन कारणों से वह आदिनाद सृष्टि के अन्तस्तल में अविच्छिन्न, अव्याहत और अप्रतिहत रूप से सर्वत्र व्यापक है।
सृष्टि से सर्वेश्वर तक लगी हुई अक्षुण्णधारा यदि कोई है, तो वह शब्द-धार ही है। अतएव इसी के माध्यम से सर्वेश्वर तक पहुँचने का सीधा मार्ग सन्तों ने बताया। यदि कहा जाय कि अन्तर्ज्योति के अतिरिक्त ईश्वर-प्राप्ति का कोई अन्य मार्ग नहीं हो सकता, तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यजुर्वेद का निम्न मन्त्र अत्यन्त दृढ़ता के साथ घोषणा करता है कि दूसरा कोई मार्ग मोक्ष-प्राप्ति का नहीं है।
‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्य वर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।।’
अर्थात मैं उस बड़े भारी ब्रह्माण्ड भर में व्यापक पूर्ण परमेश्वर को सूर्य के समान तेजस्वी और अन्धकार के दूर विद्यमान जानता और साक्षात् करता हूँ। उसको ही जानकर मृत्यु को पार कर जाता है। अन्य कोई मार्ग अभीष्ट मोक्ष-स्थान को प्राप्त करने के लिए नहीं है।
साथ ही, सन्तों ने यह भी बताया है कि उस आदिनाद को कहाँ और कैसे पकड़ोगे?
आदिनाद की साधना आरम्भिक वा मध्य की साधना नहीं, वरन अन्त की है। प्रारम्भ की और मध्यवर्त्ती साधना किये बिना आदिनाद वा अन्तर्नाद की साधना ‘भूमि पड़ा चह छुअन अकासा’ की भाँति वा आकाश-कुसुम को तोड़ने के सदृश है। अतएव आवश्यकता है प्रथम प्राथमिक साधनाओं से साधनारम्भ करने की। अर्थात सर्वप्रथम मानस जप और मानस ध्यान द्वारा मन को कुछ समेट में ला, पुनः गुरु-निर्देशित क्रिया-द्वारा दृष्टि-साधन कर एकविन्दुता प्राप्त करे। एकविन्दुता- प्राप्त रहने की अवस्था में स्थूल और सूक्ष्म मण्डल के सन्धि-विन्दु वा स्थूल मण्डल के केन्द्रविन्दु से उत्थित नाद को ग्रहण करे; क्योंकि एकविन्दुता रहने के कारण उसकी स्थिति सूक्ष्म में हो जायगी और तब वहाँ उसके लिए सूक्ष्म मण्डल के दिव्य नाद का ग्रहण करना सरल और स्वाभाविक होगा। नाद में अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करने का गुण रहने के कारण वहाँ के नाद को ग्रहण कर शब्द से शब्द में खिंचती हुई सुरत क्रमानुसार सूक्ष्म, कारण और महाकारण मण्डलों का अतिक्रमण कर कैवल्य के केन्द्र पर पहुँचेगी। वहाँ उसको उस आदिनाद (रामनाम, सत्य शब्द, सार शब्द, ॐ, स्फोट, उद्गीथ आदि) की प्राप्ति होगी, और जिसके सहारे, वह परम प्रभु परमात्मा तक पहुँच जायेगी। यहाँ प्रभु की प्राप्ति हुई। काम समाप्त हुआ।
धर्मानुरागी सज्जनो एवं धर्मानुरागिनी देवियो!
आपलोगों की श्रद्धा-भक्ति सराहनीय है। आपलोग अपने घर के काम-धंधों को छोड़कर, परिश्रम उठाकर, पैसे खर्च कर और मार्ग के कष्टों को सहन कर यहाँ पधारे हैं। सत्संग के प्रति, सद्धर्म के प्रति आपलोगों की कितनी अनुरक्ति है, यह इसका प्रतीक है। आपलोगों को देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है। अभी श्रीरामचरितमानस से ‘राम-नाम’ की महिमा आपलोगों ने सुनी। अतएव इसी विषय पर यथासंभव प्रकाश डालकर मैं आपलोगों की सामयिक सेवा करना चाहूँगा।
बाबा नानक साहब ने कहा है-
‘नउ निधि अमृत प्रभु का नामु।
देही महि इसका विस्रामु।।
सुन्न समाधि अनहत तह नाद।
कहनु न जाइ अचरज बिसमाद।।’
ईश्वर की भक्ति में ‘नाम-भजन’ की बड़ी महिमा गायी गयी है। सन्तों ने ‘नाम-भजन’ को ईश्वर-प्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट साधन बताया है। सद्ग्रन्थों में इसका सर्वतोभावेन समर्थन और अनुमोदन किया गया है। ‘नाम’ को कामधेनु, कल्पवृक्ष और पारस आदि की उपमा दी गई है। जैसे कामधेनु से मनोवांछित भोज्य पदार्थ की प्राप्ति प्रचुर मात्रा में त्वरित हो जाती है, कल्पवृक्ष से सभी कामनाओं की पूर्त्ति होती है और पारस लौह-पुंज को शीघ्र सोना बना डालता है, उसी भाँति ‘नाम’ सभी इच्छाओं की पूर्त्ति करने में समर्थ है। संसार में जिनकी कोई पूछ नहीं, नाम के प्रताप से वे पूजित और प्रतिष्ठित होते हैं।
परम सन्त बाबा देवी साहब कहा करते थे- ‘नाम-भजन करनेवाला किसी वस्तु के लिए दुःखी नहीं रह सकता। भजन के प्रभाव से उसको संसार से खाना-दाना, कपड़ा, मकान और प्रतिष्ठा मिलती है, यह बाहर का प्रकाश है और जब वह भजन करता है, तो अपने अन्दर में प्रत्यक्ष ब्रह्म-ज्योति को पाता है, यह है अन्तर का प्रकाश। इस तरह उसका बाहर और भीतर दोनों उजाला होता है।’ इसकी पुष्टि में वे गो0 तुलसीदासजी महाराज की इस उक्ति को कहा करते थे-
‘राम नाम मणि दीप धरू, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरहु, जौं चाहसि उजियार।।’
भगवन्नाम की इतनी महत्ता है कि इससे पापी-से-पापी भी उत्तम गति पाता है और अधम-से-अधम का भी उद्धार हो जाता है। जैसे नाली का अपवित्र और अपेय जल सुरसरि में पड़कर पावन और पेय हो जाता है, उसी भाँति दुराचारी, अनाचारी, अत्याचारी, मिथ्याचारी, व्यभिचारी और अहितकारी जन भी नाम-भजन की महिमा से पवित्र और पूज्यपाद हो जाता है। इतना ही नहीं, नाम के प्रभाव से ब्रह्मविद् तो होते ही हैं, ब्रह्म भी हो जाते हैं। स्वयं भगवान श्रीराम ने भक्तप्रवर हनुमानजी से कहा है-
‘दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवल रूपतः।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित् स्वयम्।।’
-मुक्तिकोपनिषद
अर्थ- हे कपिशार्दूल! दृश्य और अदृश्य को त्यागकर (पुरुष) कैवल्य-स्वरूप हो जाता है। वह केवल ब्रह्मज्ञानी नहीं; बल्कि स्वयं ब्रह्म ही है।
सच पूछा जाय, तो नाम की महिमा अनन्त है। गो0 तुलसीदासजी महाराज ने तो नाम की महिमा में यहाँ तक कहा है कि ‘नाम’ के सम्पूर्ण गुणों का गान राम भी नहीं कर सकते; क्योंकि ‘नाम’ राम से बड़ा है; यथा-
‘कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।
राम न सकहिं नाम गुन गाई।।’
तथा-
‘निर्गुन तें यहि भाँति बड़, नाम प्रभाव अपार।
कहौं नाम बड़ राम तें, निज विचार अनुसार।।’
रामचरितमानस में तथा अन्यान्य सद्ग्रन्थों में भी नाम की विपुल गाथाएँ गायी गयी हैं, जिसका सम्पूर्णतः वर्णन करना सम्भव नहीं। फिर भी गोस्वामीजी के शब्दों में ही उनके कथन की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए कुछ अवतरण देना आवश्यक है।
‘राम भगत हित नर तनु धरी।
सहि संकट किए साधु सुखारी।।
नाम सप्रेम जपत अनयासा।
भगत होहिं मुद मंगल वासा।।
राम एक तापस तिय तारी।
नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।
भंजेउ राम आप भव चापू।
भव भय भंजन नाम प्रतापू।।
दण्डक वन प्रभु कीन्ह सोहावन।
जन मन अमित नाम किए पावन।।
राम भालु कपि कटक बटोरा।
सेतु हेतु श्रम कीन्ह न थोरा।।
नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं।
करहु विचार सुजन मन माहीं।।
ब्रह्म राम तें नाम बड़, बरदायक बरदानि।
रामचरित सत कोटि महँ, लिय महेस जिय जानि।।’
अब हम जरा विवेक, तर्क, किन्तु धीर बुद्धि से गोस्वामीजी की इस कड़ी ‘नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं’ पर विचार करें। जहाँ गोस्वामीजी का यह उद्घोष है कि ‘नाम लेने मात्र से भवसागर सूख जाता है’ वहाँ नाम लेकर यदि हम चुल्लू भर पानी भी नहीं सुखा सकें, तो स्वाभाविक ही शंका उत्पन्न होती है और जबतक उसका समाधान नहीं हो जाता, मन उद्वेलित रहता है। वस्तुतः बात क्या है? उनकी यह उक्ति रोचक है, भयानक है अथवा यथार्थ? इसके उत्तर में स्वयं गोस्वामीजी सावधान करते हुए एक दिशा की ओर इंगित करते हैं-
‘करहु विचार सुजन मन माहीं।’
अर्थात वे हमें विचार करने के लिए अवकाश और स्वतन्त्रता देते हैं। अतएव हम गंभीर ज्ञान में पैठकर इस बात की खोज करें कि उपर्युक्त चौपाई के अन्तरंग में कौन-सा रहस्य छिपा हुआ है। हम असली नाम को नहीं जानते अथवा ‘नाम’ जानकर भी हम उसको लेना नहीं जानते? नाम में भेद है अथवा उसके लेने में? इस शंका का समाधान अथवा जिज्ञासा का उत्तर सन्तों और सद्ग्रन्थों से यही मिलता है कि नाम में भेद है और नाम के लेने में भी भेद है।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के शब्दों में हम कह सकेंगे-नाम में जो भेद है, उसको गुरुमुख ही जान सकते हैं। बिना गुरु के ब्रह्मा और शिव ही क्यों न हों, तो भी (नाम के भेद को) नहीं जान सकते, फिर इतर जन की तो बात ही क्या? नाम के रहस्य से अनभिज्ञ चार वेद, छह शास्त्र , आठ व्याकरण और अठारह पुराणों के रस को भरपूर जाननेवाले भी भूल में पड़कर धूल छाननेवाले ही हैं।
‘भेद जाहि विधि नाम महँ, बिन गुरु जान न कोय।
तुलसी कहहि विनीत वर, जौं विरंचि सिव होय।।
चौदह चारो अष्टदस, रस समझव भरपूर।
नाम भेद जाने बिना, सकल समझ महँ धूर।।’
-तुलसी सतसईं
तथा-
‘राम-राम सब कोइ कहै, नाम न चीन्है कोय।
नाम चीन्हि सतगुरु मिलै, नाम कहावै सोय।।’
सन्त कबीर साहब के शब्दों में हम कह सकेंगे-
‘बिनु गुरु ज्ञान नाम ना पैहौ, विरथा जनम गँवाई हो।।’
तात्पर्य यह कि राम-राम, शिव-शिव, गुरु-गुरु अथवा किसी भी इष्ट-मन्त्र को सभी कोई जपते हैं; किन्तु नाम की परख उनको नहीं हो पाती। असली नाम की परख तो यह है कि जिससे परमात्मा की प्रत्यक्षता हो जाय। पर, प्रत्यक्षता तो सुदूर रही, सम्प्रति उनकी किन्हीं दिव्य विभूति की झाँकी भी नहीं हो पाती। क्यों?
सन्त कबीर साहब कहते हैं-बिना सन्त सद्गुरु के लोग झूठे नाम में फँसकर अपने अमूल्य जीवन को व्यर्थ ही गँवा देते हैं। इसलिये उनको असली नाम का ज्ञान नहीं हो पाता और तत्सम्बन्धी लाभ जो होना चाहिये, उससे वे वंचित रहते हैं और संत पलटू दासजी कहते हैं-
‘सन्त सनेही नाम है नाम सनेही सन्त।।
नाम सनेही सन्त नाम को वही मिलावैं।
वे हैं वाकिफकार मिलन की राह बतावैं।।
जप तप तीरथ वरत करै बहुतेरा कोई।
बिना वसीला सन्त नाम से भेंट न होई।।
कोटिन करै उपाय भटक सगरो से आवै।
सन्त दुवारे जाय नाम को घर तब पावै।।
पलटू यह है प्राण पर आदि सेती और अन्त।
सन्त सनेही नाम है नाम सनेही सन्त।।’
‘पलटू सन्त न होवते नाम न जानत कोय।।’
यदि प्रणिपात कर नम्रतापूर्वक जिज्ञासा की जाय कि गोस्वामीजी महाराज! अन्यत्र कहाँ भटकूँ, किनसे पूछूँ? कृपापूर्वक आप ही नाम के भेद को बता देने का कष्ट करें, तो स्वभाव से ही सन्त ‘सरल चित जगत हित’ होने के कारण वे बताने में विलम्ब नहीं करते, कहते हैं-
‘श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक, वर्णात्मक विधि तीन।
त्रिविध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहिं प्रवीन।’
-तुलसी सतसईं
यदि हम पौराणिक ग्रन्थों से नाम-भेद के सम्बन्ध में जानना चाहें, तो श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 11, अध्याय 21, श्लोक 36 में देख सकते हैं।
‘शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम्।
अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत्।’
अर्थात शब्दब्रह्म अत्यन्त दुर्बोध है। वह प्राणमय, मनोमय और इन्द्रियमय तीन प्रकार का है। समुद्र के समान अनन्त पार, गम्भीर और कठिनता से पार किये जाने योग्य है।
इसके अनन्तर यदि हम इन तीनों को समास रूप में जानना चाहें, तो हमें बाबा नानक के निकट जाकर प्रार्थना करनी चाहिये। वे एक ही वाक्य में सब कुछ कह देते हैं-
‘हरि जपि नाम धि्आइ तू जम डरपै दुखु भाग।’
अर्थात हरि-मन्त्र का जप करो और नाम का ध्यान करो। इससे यम डरेगा और दुःख भाग जायगा।
तात्पर्य यह कि नाम के दो प्रकार हुए, जिनमें एक का जप होता है और दूसरे का ध्यान। इन दोनों में से एक को हम वर्णात्मक कह सकते हैं और दूसरे का ध्वन्यात्मक। व्याकरण शास्त्र के अनुकूल वर्णात्मक को सार्थक और ध्वन्यात्मक को निरर्थक कह सकेंगे। ज्ञातव्य है कि सार्थक शब्द का प्रयोग अर्थ-सहित के लिए और निरर्थक शब्द का प्रयोग अर्थ-रहित के लिए किया गया है। यहाँ ‘निरर्थक’ शब्द का अर्थ ‘व्यर्थ’ समझना भ्रान्ति-मूलक होगा।
नाम वा शब्द के उभय भेदों को इस भाँति समझना चाहिये कि वर्णात्मक नाम का जप होता है और ध्वन्यात्मक नाद का ध्यान। जप के नामों में भेद है, जपने की कलाओं में भेद है तथा उनके फलों में भी भेद है; यथा-
‘यदुच्चनीच स्वरितेः शब्दैः स्पर्शाद्यदाक्षरैः।
मंत्रमुच्चारयेद्वाचा जपयज्ञः स वाचिकः।।
शनैरुच्चारयेन्मंत्रां मन्दमोष्ठो प्रचालयेत्।
अपरैरश्रुतः किंचित् स उपांशु जपः स्मृतः।
विधाय चाक्षरश्रेण्यां वर्णाद्वर्णं परात्परम्।
शब्दार्थ चिन्तनं भूयः कथ्यते मनसो जपः।।
वाचिकस्त्वेक एव स्यात् उपांशुः शत उच्यते।
सहस्रं मानसः प्रोक्तो मन्वत्रि भृगु नारदैः।।’
-शौनकः
और मनुस्मृति 2/85 में इस भाँति लिखा है-
‘विध्यिज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः।
उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः।।’
इस प्रकार जप के तीन भेद हुए-वाचिक, उपांशु और मानस। तीनों के जपने की कलाओं में भेद यह है कि वाचिक जप उच्च स्वर में किया जाता है, जिसको दूसरे भी सुन सकते हैं। उपांशु जप में होंठ हिलते हैं और मुँह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर अन्य किसी को सुनाई नहीं देता। मानस जप को जपों का प्राण कहा गया है। इसमें मन्त्र का उच्चार करना नहीं होता, मन से ही मन्त्रावृत्ति करनी पड़ती है। त्रिविध जपों के फलों में अन्तर यह है कि दर्शपौर्ण मासरूप कर्मयज्ञों की अपेक्षा वाचिक जप दश गुणा श्रेष्ठ है। वाचिक जप से उपांशु जप सौ गुणा अधिक है तथा उपांशु जप से मानस जप सहस्र गुणा श्रेष्ठ है।
साधक अपनी सुविधा एवं श्रद्धानुकूल किसी भी इष्टदेव के नाम का जप कर सकते हैं; किन्तु स्मरण रहे कि वह इष्टमन्त्र वा जप-सम्बन्धी शब्द ईश्वरवाचक हो। सन्त दादू दयालजी साम्प्रदायिक रूढ़िवाद की शृंखला को तोड़कर उदारतापूर्वक कहते हैं-
‘दादू सिरजनहार के, केते नाम अनन्त।
चित आवै सो लीजिये, यों सुमिरैं साधू संत।।’
साथ ही यदि मन्त्र के शब्द छोटे हों, तो उत्तम है। वह मदमस्त गजराजरूप मन को वश में करने के लिए अंकुश का काम करता है। इतना ही नहीं, वह त्रिदेव के सहित समस्त देवों को भी साधक के वश में करा देता है। गो0 तुलसीदास जी महाराज इस विचार के कायल हैं और इस सम्बन्ध में वे अपनी अनुभूति कहते हैं-
‘मंत्र परम लघु जासु बस, विधि हरिहर सुर सर्व।
महामत्त गजराज कहँ, बस कर अंकुस खर्व।।
-रामचरितमानस
जिस किसी मन्त्र का जप हो, उसमें एकाग्रता अनिवार्य है। मन कहीं और मनका कहीं, ऐसा जप लाभदायक नहीं होता। जप करते समय मन्त्र के अतिरिक्त अन्य कोई विचार मन में उठने न पावे, इसका ख्याल रखना चाहिये। मन में संकल्प-विकल्प होते रहना, साधक की सिद्धि का बाधक है; किन्तु इसमें निराश होने अथवा उकताने की बात नहीं। धैर्य धारणकर संयमपूर्वक अभ्यास करते रहने से सफलता अवश्य मिलती है। संकल्प-विकल्प-रहित मन से बहुत दिनों तक निरन्तर जप करते रहने से ‘जप सिद्ध’ हो जाता है। फलस्वरूप कुसंकट तो मिटते ही हैं, साधक को अणिमादिक सिद्धियाँ भी मिलने लगती हैं।
‘जपहिं नामु जन आरत भारी।
मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।
साधक नाम जपहिं लय लाएँ।
होहिं सिद्धि अणिमादिक पाएँ।।
-रामचरितमानस
योगतत्त्वोपनिषद में लिखा है-
‘सगुणं ध्यानमेतत्स्यादणिमादि गुणप्रदम्।
निर्गुण ध्यान युक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत्।।105।।’
अर्थात सगुण का ध्यान अणिमादि गुणों को देनेवाला है और निर्गुण-ध्यान से युक्त को समाधि होती है।
‘विमल विवेक विलोचन’ प्राप्त करने के कारण गोस्वामीजी नाम को सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में देखते हैं। इस हेतु सगुण नाम का वर्णन कर निर्गुण नाम की वन्दना करते हुए वे उनकी महिमा-विभूति को इस भाँति गाते हैं-
‘बन्दौं राम नाम रघुवर को।
हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।
विधि हरिहर मय वेद प्रान सो।
अगुन अनूपम गुन निधान सो।।
नाम रूप दुइ ईस उपाधी।
अकथ अनादि सुसामुझि साधी।।’
-रामचरितमानस
अर्थात मैं रघुवर के रामनाम को प्रणाम करता हूँ, जो अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा का कारण है। वह (रामनाम) ब्रह्मा, विष्णु और महेश का रूप, वेद का जीवन, निर्गुण, उपमा-रहित और गुण का भण्डार है।
साथ ही, ‘रामनाम’ को ‘विधि हरिहरमय’ और ‘वेद का प्राण’ भी कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि राम=सर्वव्यापक; नाम=शब्द; राम नाम=वह शब्द जो सबमें व्यापक हो। जो शब्द सबमें ओत-प्रोत (व्यापक) हो, उससे रिक्त कोई रह सकता है? इस दृष्टि से वह विधि, हरि और हर में भी व्यापक है, अतएव वह ‘राम नाम’ ‘विधि हरिहरमय’ है।
दूसरी बात यह है कि सृष्टि-निर्माण निमित्त सर्वेश्वर ने जब ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ की एषणा की, तब एक बड़ा घोर ध्वन्यात्मक शब्द हुआ, जिसको ऋषियों ने अ+उ+म् (ॐ) में आरोपित किया। यह ‘ॐ’ ही सृष्टि का आदि कारण हुआ। परम प्रभु सर्वेश्वर से यह उत्थित नाद ‘ॐ’ सब पिण्डों तथा सब ब्रह्माण्डों के अन्तस्तल में सदा अप्रतिहत और अविच्छिन्न रूप से व्यापक हुआ। जिस तरह सृष्टि के आदि में ध्वन्यात्मक ‘ॐ’ का आविर्भाव हुआ, उसी भाँति वेद-मंत्र के प्रथम वर्णात्मक ‘ॐ’ का होना अनिवार्य हुआ। कहने का उद्देश्य यह कि जैसे बिना ‘ॐ’ के सृष्टि नहीं, वैसे ही बिना ‘ॐ’ के वेद नहीं।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता 2/45 में ‘त्रैगुण्य विषया वेदा’ तथा उसी गीता के 7/8 में प्रणवः सर्ववेदेषु’ सब वेदों में प्रणव अर्थात ‘ॐकार मैं हूँ’ कहकर इस विषय का और भी अधिक स्पष्टीकरण कर दिया है। इसलिए सृष्टि और वेद दोनों का प्राण ‘ॐ’ है। सन्त दरिया साहब (बिहारी) कहते हैं-
‘ॐ’ वेद जगत फैलाई।
मूल वेद बिरला केहु पाई।।
मूल वेद शब्द निजु सारा।
करनी कथा ज्ञान विस्तारा।।
यह ध्वन्यात्मक ‘ॐ’ त्रयगुण प्रकृति मण्डल से पूर्व होने के कारण निर्गुण है; किन्तु इसी से त्रयगुणों की उत्पत्ति हुई है, इस हेतु इसको गुण का भण्डार भी कहते हैं। ध्यानविन्दूपनिषद में लिखा है-
‘अकारः पीतवर्णः स्याद्रजोगुण उदीरितः।
उकारः सात्त्विकः शुक्लो मकारः कृष्णतामसः।।’
अर्थात अ=रजोगुण=पीतवर्ण; उ=सतोगुण=शुक्लवर्ण; म=तमोगुण=कृष्णवर्ण। और ज्ञानसंकलिनी तंत्र में इस भाँति लिखा है-
‘अकारः सात्त्विको ज्ञेय उकारो राजसः स्मृतः।
मकारस्तामसः प्रोक्तस्त्रिभिः प्रकृतिरुच्यते।।98।।’
अर्थात अकार सतोगुण, उकार रजोगुणमय और मकार तमोगुणात्मक है। इन्हीं तीनों गुणों के द्वारा प्रकृति वर्णित हुई। और ‘हिन्दी-शब्द-सागर’ में ‘ॐ’ को ब्रह्मा, विष्णु और शिव की त्रिमूर्ति का द्योतक शब्द बताया है। और यह भी लिखा है कि अ=विष्णु, उ=शिव और म्=ब्रह्मा का संकेतक माना जाता है। (नागरी प्रचारिणी सभा, काशी)
इसी दृष्टिकोण को अपनाये रखकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘ॐ’ शब्द से ‘राम नाम’ की समता दिखायी है और उसको ‘विधि-हरि-हर’ का रूप तथा वेद का प्राण कहा है। अतएव ‘ॐ’ और ‘राम-नाम’ एक ही है, भिन्न नहीं।
आदिनाद ‘ॐ’ निर्गुण तथा अघोषम् अव्यञ्जनम् अस्वरं च’ आदि होने के कारण वाणी का विषय नहीं है। फिर भी, सर्वसाधारण जन के बोधार्थ ऋषियों ने उसको वर्णात्मक सगुण ‘ॐ’ में आरोपित किया। आरोपित शब्द के अक्षरों, उसके अर्थों वा उसकी व्याख्याओं को भी आरोपित ही जानना चाहिये। यही कारण है कि उपर्युक्त ध्यानविन्दूपनिषद, ज्ञानसंकलिनी तन्त्र और हिन्दी-शब्द-सागर के वर्णित विचारों में भिन्नता का बोध होता है।
परम प्रभु सर्वेश्वर के गुण प्रकट करने के कारण वर्णात्मक नाम को ‘सिफाती’ और उनके स्वरूप की प्रत्यक्षता करा देने में सक्षम होने के हेतु ध्वन्यात्मक नाम को ‘जाती नाम’ भी कहते हैं। वर्णात्मक शब्द जो कि नाभि, हृदय और कण्ठ से आघात खाकर मुँह से उच्चरित किया जाता है, जिसको बैखरी वाणी भी कहते हैं, सगुण होता है, यह तो सभी जन जानते ही हैं; किन्तु ध्वन्यात्मक शब्द सगुण होता है और निर्गुण भी, इसको स्वल्पसंख्यक जन ही जानते हैं। सगुण नाम निर्गुण नाम से मिलाता है और निर्गुण नाम अपने नामी ‘परम प्रभु परमात्मा’ का अपरोक्ष ज्ञान कराता है। ध्वन्यात्मक नाम के दो भेद हैं। जिसमें एक को आहत और दूसरे को अनाहत कहते हैं। आहत अर्थात आघातजन्य शब्द और अनाहत अर्थात आघात-रहित शब्द। सन्तों ने कहीं-कहीं अनाहत नाद को अनहद शब्द कहकर भी वर्णित किया है, यद्यपि इन दोनों में कुछ भिन्नता भी है। अनहद शब्द जड़ात्मक मण्डल के अन्दर का शब्द है और अनाहत शब्द चेतन मण्डल का। अन्तर्नाद की साधना के समय साधक को इतने प्रकार के नादों की अनुभूति होती है, जिसकी गणना कर उसकी संख्या का निर्धारण करना कठिन ही नहीं, असम्भव भी है। इस हेतु इन शब्दों को ‘अनहद शब्द’ कहते हैं, ये सब-के-सब सगुण हैं। और जो अनाहत आदिनाद है, वह एक-ही-एक है। वह निर्गुण है, निराकार है, निरुपाधि है और सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। जिसके स्वरूप का वर्णन ‘मण्डल ब्राह्मणोपनिषद’ में और ध्यानविन्दूपनिषद में इस भाँति किया है-
‘अनाहतस्य शब्दस्य तस्य शब्दस्य यो ध्वनिः।
ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिर्ज्योतिरन्तर्गतं मनः।।’
-ब्राह्मणोपनिषद, ब्राह्मण 5
अर्थात अनाहत शब्द का जो शब्द है, उसकी जो ध्वनि है, उस ध्वनि के अन्दर ज्योति (चेतन) है और ज्योति के अन्दर मन (लय को प्राप्त होता) है।
‘अनाहतं तु यच्छब्दं तस्य शब्दस्य यत्परम्।
तत्परं विन्दते यस्तु स योगी छिन्न संशयः।।
वालाग्र शतसाहस्त्रं तस्य भागस्य भागिनः।
तस्य भागस्य भागार्धं तत्क्षये तु निरंजनम्।।’
-ध्यानविन्दूपनिषद
अर्थात अनाहत के बाद जो निःशब्द परमपद है, योगी उसे सबसे बढ़कर समझते हैं, यहाँ सभी संशय दूर हो जाते हैं। यदि केश की नोंक को सौ हजार भाग करें, तो उसका फिर भाग करने पर जो आधा भाग होगा, वह नाद का स्वरूप होगा। और जब यह नाद भी लय हो जाता है, तब योगी निरंजन ब्रह्म को प्राप्त करता है।
यह नाद इतना सूक्ष्म है कि जिसको कर्णेन्द्रिय की कौन कहे, मन भी ग्रहण करने में सर्वदा असमर्थ है। फिर तो बेचारी वागिन्द्रिय उस सम्बन्ध में व्यक्त ही क्या कर सकती है? और दूसरी बात यह है कि वाक् इन्द्रिय तो स्वर-व्यंजनादि वर्णात्मक शब्दों को ही बोल सकती है और वह नाद है -
‘अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अकण्ठताल्वोष्ठम् अनासिकं च।
अरेफ जातम् उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित्।।’
-अमृतनाद उपनिषद
यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के अष्टम अध्याय में सर्वेन्द्रियों का संयम कर उसकी साधना का आदेश दिया है और बतलाया है कि इसके साधक को परमगति की प्राप्ति होती है।
यथा-
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुद्ध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।
ॐ इत्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।’
-श्रीमद्भगवद्गीता 8/12-13
अर्थात सब (इन्द्रिय-रूपी) द्वारों का संयम कर और मन का हृदय में निरोध करके (एवं) मस्तक में प्राण को ले जाकर समाधि योग में स्थित होनेवाला मेरे इस एकाक्षर ब्रह्म ‘ॐ’ का चिन्तन-स्मरण करता हुआ जो मनुष्य देह छोड़कर जाता है, उसे परम गति मिलती है।
ऐसे ही जन का आवागमन मिटता है और भवसागर सूखता है, अन्यों का नहीं।
कतिपय सज्जनों ने ‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म....स्मरन्य्’ का अर्थ जप करना भी किया है। कहने की आवश्यकता नहीं, यह सर्वसाधारण जानते हैं कि वर्णात्मक ‘ॐ’ का जप जाग्रदवस्था में होता है; किन्तु यहाँ जिस ‘ॐ’ की साधना का संकेत भगवान ने किया है, वह वर्णात्मक हो नहीं सकता, ध्वन्यात्मक है; क्योंकि इन्द्रियों के सब द्वारों को रोकने, मन को हृदय में स्थिर करने, प्राण को मस्तक में धारण करने और समाधिस्थ होनेवाले की कौन-सी अवस्था रहेगी; जाग्रत, स्वप्न वा सुषुप्ति? इन श्लोकों में जिन साधनाओं और उनके फलस्वरूप परम गति-प्राप्ति होने की बात भगवान ने कही है, वह गति तीन अवस्थाओं में रहनेवाले को कदापि हो नहीं सकती। वह तो चौथी अवस्था (तुरीय) में रहकर भजन-चिन्तन करनेवाले के लिए ही अपेक्षित है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने भी कहा है-
‘तीन अवस्था तजहू भजहु भगवन्त।
मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनन्त।।’
विचारणीय है कि तुरीय अवस्था में वर्णात्मक ‘ॐ’ वा किसी भी वर्णात्मक शब्द का जप नहीं हो सकता। महाप्राज्ञ लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी ने इस सम्बन्ध में कहा है कि ‘तेरहवें श्लोक से प्रकट होता है कि यहाँ ओंकारोपासना ही उद्दिष्ट है।’
-गीता-रहस्य
यह परमात्मा का वाचक ‘ॐ’ है। इसका ध्यान किया जाता है, इसको जपा नहीं जाता। इस हेतु इसको ‘अजपा-जाप’ भी कहते हैं। कितने लोग श्वास पर जप करने को भी ‘अजपा-जाप’ कहते हैं, जो यथार्थ नहीं है। सन्त कबीर साहब कहते हैं- जो स्वाभाविक ध्वनि अपने अन्दर में सतत निनादित होती रहती है, वह ‘अजपा-जाप’ है। इसकी परख गुरु से प्राप्त ज्ञान के द्वारा होती है। इसको जिभ्या से जपा नहीं जाता और न इसमें माला अथवा अंगुली फिराने की ही आवश्यकता पड़ती है।
‘जाप अजपा हो सहज धुन परख गुरु गम धारिये।
होत ध्वनि रसना बिना कर माल बिनु निरवारिये।।’
और परमहंस लक्ष्मीपति जी महाराज भी आन्तरिक अनहद नाद को ही ‘अजपा’ की संज्ञा से अभिहित करते हैं; यथा-
‘अनहद अपने साथ है, अजपा ताको नाम।
अमल करो अपनाय के, अमर नाम घर ठाम।।’
साधक गुरु-निर्देशानुकूल अमादृष्टि का अथवा शाम्भवी वा वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास कर अनहद नाद की साधना करता है। नाद-साधन में वह विविध नादों का श्रवण, ग्रहण और त्याग करता हुआ अन्त में निर्गुण निराकार आदिनाद ‘ॐ’ (स्फोट, उद्गीथ, प्रणव) को पाता है, जिसके आकर्षण से आकृष्ट हो वह परम प्रभु सर्वेश्वर तक पहुँचकर परम मोक्ष लाभ करता है; क्योंकि नाद में अपने उद्गम-स्थान पर आकर्षण करने का गुण होता है और वह आदिनाद परम प्रभु परमेश्वर से ही प्रस्फुटित हुआ है। जिस तरह चुम्बक लोहे को अपनी ओर खींचता है, उसी तरह आदिशब्द सुरत को खींचकर सर्वेश्वर से मिलाता है। सन्त दरिया साहब (बिहारी) कहते हैं-
‘चुम्बक सत्त शब्द है भाई।
चुम्बक शब्द लोक लै जाई।
लेइ निकारि होखै नहिं पीरा।
सत्त शब्द जो बसै शरीरा।।’
नाम के सम्बन्ध में मैं एक बात और भी निवेदन कर देना चाहूँगा, जिसके सम्बन्ध में अपने देश में भाँति-भाँति के भ्रामक विचार फैले हुए हैं। वह है-रामचरितमानस की अधोलिखित चौपाइयाँ-
‘जान आदि कवि नाम प्रतापू।
भयउ शुद्ध करि उलटा जापू।।’
तथा-
उलटा नाम जपत जग जाना।
बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।।’
यह उलटा नाम कौन-सा है? कितने लोग कहते हैं कि वाल्मीकिजी इतने बड़े पापी थे कि वे ‘राम-राम’ नहीं कह सकते थे। इस हेतु ऋषि द्वारा राम-मन्त्र प्राप्त कर भी वे ‘मरा-मरा’ जपा करते थे। इस बात को कोई भोले भक्त भले ही मान ले; किन्तु आज के बुद्धिवादी वा तर्कशील इसमें विश्वास नहीं कर सकते। वे कहेंगे- कोई कितना भी बड़े-से-बड़ा पापी क्यों न हो, वह दो अक्षर ‘राम’ का उच्चारण क्यों नहीं कर सकता? अवश्य कर सकता है। यदि पापी मनुष्य भगवान का नाम दो अक्षर (राम) नहीं ले सकता है, तो पौराणिक कथा के अनुसार अजामिल भी तो बड़ा पापी था। वह चार अक्षर ‘नारायण’ शब्द का उच्चारण कैसे कर सका था? यदि कहा जाय कि अजामिल से रत्नाकर अधिक पापी था, इस हेतु अजामिल तो किसी भाँति भगवान का नाम ले भी सकता था; किन्तु रत्नाकर उससे बिल्कुल रिक्त था। यदि इस बात को ठीक मान लिया जाय, तो ऐसा कहा जा सकता है कि अजामिल और रत्नाकर; इन दोनों से हमलोग बहुत कम पापी हैं अथवा पापी हैं ही नहीं; क्योंकि हम तो ‘राम’, ‘नारायण’, ‘शिव’ अथवा भगवान के जो भी नाम कहे जायँ, उलटे वा सुलटे, सभी का उच्चारण सुगमता से कर सकते हैं। किन्तु क्या, हम अपने हृदय पर हथेली रखकर यह कह सकते हैं कि “हम विशुद्ध हैं अथवा हम शुद्ध हो गये हैं? हममें कोई विकार नहीं?” हम “षट विकार जित अनघ अकामा” हो गये? कदापि नहीं। क्यों? यदि उलटा नाम जप कर भी कोई शुद्ध हो सकता है, तो महान आश्चर्य है कि हम सुलटा नाम जप कर भी क्यों नहीं शुद्ध हो पाते? वस्तुतः रहस्य क्या है? आइये, हम इसपर विचार करें।
वर्णात्मक नाम का उलटा ध्वन्यात्मक नाम होता है और सगुण नाम का उलटा निर्गुण नाम होता है। वर्णात्मक नाम की उत्पत्ति पिण्ड में नीचे नाभि से होकर ऊपर होंठ पर जाकर समाप्ति होती है और ध्वन्यात्मक निर्गुण नाम की उत्पत्ति परम प्रभु परमात्मा से होकर नीचे ब्रह्माण्ड तथा उससे भी नीचे पिण्ड में व्यापक है। अर्थात वर्णात्मक नाम की गति नीचे से ऊपर की ओर है और ध्वन्यात्मक निर्गुण नाम की गति ऊपर से नीचे की ओर है। इस तरह वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक नाम एक दूसरे के उलटे हैं।
शब्द में अपने उद्गम-स्थान पर आकर्षण करने का स्वाभाविक गुण है। परमात्मा ने जो सृष्टि की, उसका उपादान कारण उन्होंने निर्गुण ध्वन्यात्मक ध्वनि वा निर्गुण रामनाम को ही बनाया। स्थूल-सूक्ष्मादि भेद से सृष्टि के पाँच स्तर हुए और इन पाँचों के निर्माण-निमित्त पाँच केन्द्रों की भी स्थापना हुई। साधक प्रथम निम्न स्तर के केन्द्रीय शब्द को ग्रहण कर उसके आकर्षण से आकृष्ट हो उसके ऊर्ध्व-स्थित केन्द्र में प्रतिष्ठित होता है। पुनः वहाँ के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर उस मण्डल के ऊपर के केन्द्र में पहुँचता है। एवं प्रकार प्रत्येक निम्न स्तरीय मण्डल के केन्द्रीय शब्द का ग्रहण एवं त्याग करता हुआ अन्त में वह उस आदिनाद निर्गुण शब्दब्रह्म को पाकर परब्रह्म को प्राप्त करता है। ब्रह्मविन्दूपनिषद में लिखा है-
‘द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत्।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति।।’
अर्थात दो विद्याएँ समझनी चाहिये, एक तो शब्दब्रह्म और दूसरा परब्रह्म। शब्दब्रह्म में जो निपुण हो जाता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है। और, सन्त सुन्दरदासजी कहते हैं-
‘शब्दब्रह्म परब्रह्म भली विधि जानिये।
पाँच तत्त्व गुण तीन मृषा करि मानिये।।
बुद्धिवन्त सब सन्त कहैं गुरु सोइ रे।
और ठौर शिष जाइ भ्रमे जिनि कोइ रे।।’
इसी ‘उलटा नाम’ अर्थात ध्वन्यात्मक निर्गुण राम-नाम का भजन कर रत्नाकर डाकू-वाल्मीकि ऋषि हुए थे; मात्र वर्णात्मक ‘राम-राम’ का उलटा ‘मरा-मरा’ जप कर नहीं। आज भी जो कोई ध्वन्यात्मक निर्गुण रामनाम का भजन (ध्यान) करेंगे, वे शुद्ध होकर ब्रह्मविद् हो जायेंगे। इतना ही नहीं, ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’ के अनुसार वे ‘ब्रह्म’ ही हो जायेंगे। और, तब गोस्वामी तुलसीदासजी का यह महावाक्य ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ सार्थक हो जायगा।
अन्त में एक बात और भी निवेदित कर देना आवश्यक समझता हूँ। वह यह है कि यद्यपि सद्ग्रन्थों में भगवन्नाम के, उसकी साधना-विधि के और उसके फल के बहुत वर्णन मिलते हैं, फिर भी किन्हीं क्रियावान शुद्धाचारी सन्त सद्गुरु से इसकी शिक्षा-दीक्षा ग्रहण कर साधना करनी चाहिये; अन्यथा लाभ की जगह हानि होने की भी सम्भावना रहती है।
ॐ शान्ति ! शान्ति !! शान्ति !!!
शब्द-साधना -सम्बन्धी कुछ सन्तवाणियाँ
।। 1 ।।
जब से अनहद घोर सुनी।
इन्द्री थकित गलित मन हूआ, आशा सकल भुनी।।1।।
घूमत नैन शिथिल भइ काया, अमल जो सुरत सनी।
रोम-रोम आनन्द उपज करि, आलस सहज भनी।।2।।
मतवारे ज्यों शब्द समाये, अन्तर भींज कनी।
करम भरम के बन्धन छूटे, दुविध विपति हनी।।3।।
आपा विसरि जक्त कूँ विसरो, कित रहि पाँच जनी।
लोक भोग सुधि रही न कोई, भूले ज्ञानि गुनी।।4।।
हो तहँ लीन चरण ही दासा, कहैं शुकदेव मुनी।
ऐसा ध्यान भाग सूँ पैये, चढ़ि रहै शिखर अनी।।5।।
।। 2 ।।
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव।।
सो मेरा गुरुदेव सेवा मैं करिहौं वाकी।
शब्द में है गलतान अवस्था ऐसी जाकी।।
निस दिन दसा अरूढ़ लगै ना भूख पियासा।
ज्ञान भूमि के बीच चलत है उलटी स्वासा।।
तुरिया सेती अतीत सोधि फिरि सहज समाधी।
भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी।।
पलटू तन मन वारिये मिलै जो ऐसा कोउ।
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरु देव।।
।। 3 ।।
सत सुरत समझि सिहार साधौ।
निरखि नित नैनन रहौ।।1।।
धुनि धधक धीर गम्भीर मुरली।
मरम मन मारग गहौ।।2।।
सम सील लील अपील पेलै।
खेल खुलि-खुलि लखि परै।।3।।
नित नेम प्रेम पियार पिउ कर।
सुरति सजि पल पल भरै।।4।।
धरि गगन डोरि अपोड़ परखै।
पकरि पट पिउ पिउ करै।।5।।
सर साधि सुन्न सुधारि जानौ।
ध्यान धरि जब थिर थुवा।।6।।
जहाँ रूप रेख न भेष काया।
मन न माया तन जुवा।।7।।
आली अन्त मूल अतूल कँवला।
फूल फिरि फिरि धरि धसै।।8।।
तुलसी तार निहार सूरति।
सैल सत मत मन बसै।।9।।
।। 4 ।।
पाँच नौबत बिरतन्त कहौं सुनि लीजिये।
भेदी भक्त विचारि सुरत रत कीजिये।।1।।
स्थूल सूक्ष्म सन्धि विन्दु पर परथम बाजई।
दुसर कारण सूक्ष्म सन्धि पर नौबत गाजई।।2।।
जड़ प्रकृति अरु विकृति सन्धि जोइ जानिये।
महाकारण अरु कारण सन्धि सोइ मानिये।।3।।
तिसरि नौबत यहि सन्धि पर सब छन बाजती।
महाकारण कैवल्य की सन्धि विराजती।।4।।
शुद्ध चेतन जड़ प्रकृति सन्धि यहि है सही।
यहँ की धुनि को चौथि नौबत हम गुनि कही।।5।।
निर्मल चेतन केन्द्र और ऊपर अहै।
परा प्रकृति कर केन्द्र सोइ अस बुद्धि कहै।।6।।
अत्यन्त अचरज अनुपम यहं से बाजती।
पञ्चम नौबत ‘मेँहीँ’ संसृति बिसरावती।।7।।
-महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
।। 1 ।।
जब से अनहद घोर सुनी।
इन्द्री थकित गलित मन हूआ, आशा सकल भुनी।।1।।
घूमत नैन शिथिल भइ काया, अमल जो सुरत सनी।
रोम-रोम आनन्द उपज करि, आलस सहज भनी।।2।।
मतवारे ज्यों शब्द समाये, अन्तर भींज कनी।
करम भरम के बन्धन छूटे, दुविध विपति हनी।।3।।
आपा विसरि जक्त कूँ विसरो, कित रहि पाँच जनी।
लोक भोग सुधि रही न कोई, भूले ज्ञानि गुनी।।4।।
हो तहँ लीन चरण ही दासा, कहैं शुकदेव मुनी।
ऐसा ध्यान भाग सूँ पैये, चढ़ि रहै शिखर अनी।।5।।
।। 2 ।।
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरुदेव।।
सो मेरा गुरुदेव सेवा मैं करिहौं वाकी।
शब्द में है गलतान अवस्था ऐसी जाकी।।
निस दिन दसा अरूढ़ लगै ना भूख पियासा।
ज्ञान भूमि के बीच चलत है उलटी स्वासा।।
तुरिया सेती अतीत सोधि फिरि सहज समाधी।
भजन तेल की धार साधना निर्मल साधी।।
पलटू तन मन वारिये मिलै जो ऐसा कोउ।
धुन आनै जो गगन की सो मेरा गुरु देव।।
।। 3 ।।
सत सुरत समझि सिहार साधौ।
निरखि नित नैनन रहौ।।1।।
धुनि धधक धीर गम्भीर मुरली।
मरम मन मारग गहौ।।2।।
सम सील लील अपील पेलै।
खेल खुलि-खुलि लखि परै।।3।।
नित नेम प्रेम पियार पिउ कर।
सुरति सजि पल पल भरै।।4।।
धरि गगन डोरि अपोड़ परखै।
पकरि पट पिउ पिउ करै।।5।।
सर साधि सुन्न सुधारि जानौ।
ध्यान धरि जब थिर थुवा।।6।।
जहाँ रूप रेख न भेष काया।
मन न माया तन जुवा।।7।।
आली अन्त मूल अतूल कँवला।
फूल फिरि फिरि धरि धसै।।8।।
तुलसी तार निहार सूरति।
सैल सत मत मन बसै।।9।।
।। 4 ।।
पाँच नौबत बिरतन्त कहौं सुनि लीजिये।
भेदी भक्त विचारि सुरत रत कीजिये।।1।।
स्थूल सूक्ष्म सन्धि विन्दु पर परथम बाजई।
दुसर कारण सूक्ष्म सन्धि पर नौबत गाजई।।2।।
जड़ प्रकृति अरु विकृति सन्धि जोइ जानिये।
महाकारण अरु कारण सन्धि सोइ मानिये।।3।।
तिसरि नौबत यहि सन्धि पर सब छन बाजती।
महाकारण कैवल्य की सन्धि विराजती।।4।।
शुद्ध चेतन जड़ प्रकृति सन्धि यहि है सही।
यहँ की धुनि को चौथि नौबत हम गुनि कही।।5।।
निर्मल चेतन केन्द्र और ऊपर अहै।
परा प्रकृति कर केन्द्र सोइ अस बुद्धि कहै।।6।।
अत्यन्त अचरज अनुपम यहं से बाजती।
पञ्चम नौबत ‘मेँहीँ’ संसृति बिसरावती।।7।।
-महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज